Wednesday, July 31, 2013
Friday, July 26, 2013
दो छोटी कवितायेँ
एक
*****
पलकें निश्चल
पुतलियों में हलचल
स्वप्न क्यूँ देखूं तेरा ही
बार-बार, हर बार...!!
दो
*****
बोझिल,बेनूर शाम
मटीआला आसमान
समय दिन कोई हो
'नदी'
बहती बिलकुल मुझसी हो... !!
*****
पलकें निश्चल
पुतलियों में हलचल
स्वप्न क्यूँ देखूं तेरा ही
बार-बार, हर बार...!!
दो
*****
बोझिल,बेनूर शाम
मटीआला आसमान
समय दिन कोई हो
'नदी'
बहती बिलकुल मुझसी हो... !!
Friday, July 19, 2013
अखियाँ तरसें
कितने दिन यूँ ही उड़े
पँख बिन... धुआं हुए..
प्रतीक्षा
आखिर कितनी
मौसम बदले,
सावन बरसे
रिमझिम...अखियाँ तरसें
क्यों...
काहे न मन
गुनगुनाए
गीत-गुंजन खुशियों के
दिल की बातें
लिख-सुन फिर
हँस ले कुछ पल यूँ ही...
कितने दिन यूँ ही उड़े
पँख बिन... धुआं हुए...!
पँख बिन... धुआं हुए..
प्रतीक्षा
आखिर कितनी
मौसम बदले,
सावन बरसे
रिमझिम...अखियाँ तरसें
क्यों...
काहे न मन
गुनगुनाए
गीत-गुंजन खुशियों के
दिल की बातें
लिख-सुन फिर
हँस ले कुछ पल यूँ ही...
कितने दिन यूँ ही उड़े
पँख बिन... धुआं हुए...!
Wednesday, July 17, 2013
जिन्दगी तो हर कदम
जिन्दगी तो हर कदम
पुकारती रही
तुमने सुना ही नहीं
नज़रें नीचे किये चलते
रहे
वह तो
फैली थी खुशबू सी
हर तरफ
तुमने सूंघी ही नहीं
उसकी महक
वह तो
आस लगाए
तकती रही तेरी राह
और तुम
जुगनुओं के पीछे
न जाने कहाँ से
किधर को भटका किये
और यों
वक्त की मुट्ठी से
जिंदगी के
छोटे-छोटे पल-छिन
छूटते फिसलते
बिखरते रहे ...!
ïïï
Tuesday, July 16, 2013
सोच २ रचनाएँ
(एक)
सोच....बिल्ली है
मन के अँधेरे गलियारों में
अनजान रास्तों के काटे फेरे
पता नहीं
कहाँ से क्या सूंघ ली है
भटक रही है ...!!
***
(दो)
सोच... पतंग है
सोचती है, स्वतंत्र हूँ
उड़ने को अम्बर में कहीं भी
पर उतना ही उड़े
जितनी पीछे डोर,
तुनका और ढील...
और डोर,
तुनका और ढील
यह सब तो
कहीं और
किसी और हाथ में...!!
***
Sunday, July 14, 2013
गीली-गीली धूप में
तेरी आवाज
दूर से
खिल-खिलाता सा कोई बादल
गीली-गीली धूप में
तर-ब-तर लिपटा जैसे प्यार
चुपके से उतर कर
धरती के अन्तस् को
भिगोने लगा है
पत्ता-पत्ता हरा होने लगा है...!!
दूर से
खिल-खिलाता सा कोई बादल
गीली-गीली धूप में
तर-ब-तर लिपटा जैसे प्यार
चुपके से उतर कर
धरती के अन्तस् को
भिगोने लगा है
पत्ता-पत्ता हरा होने लगा है...!!
Monday, July 8, 2013
कुलवधू नही नगरवधू
वह प्राणों सी प्रिय
उमगता यौवन
उफनती इच्छाएं लिए
बड़ी हो रही थी
ललाट पर चिंता की रेखा लिए
कुंचित हुई बाबा की भृकुटी
सहस्त्राधिक बालिकाएं भी
इस कुसुमकुञ्ज-कलिका समान
हो सकती हैं क्या ?
इतनी गंध, कोमलता,
सौन्दर्य भला
और किस पुष्प में है ?
दिन-दुगुनी, रात-चौगुनी
अप्रतिम सौन्दर्य-लहरी..
तभी तो
बचपन में ही ले भागे थे अपने गाँव
भय था,
वज्जियों के धिकृत नियम से
कहीं बिटिया
'नगरवधू' ही न बना दी जाए
पर होनी को
कब, कौन टाल सका है ?
बिटिया के मन में उठी
एक कंचुकी की चाह
उस वृद्ध महानामन को
लौटा लाई वैशाली में फिर से
जिसने रच रखा था
आम्रपाली का भविष्य
अपने नियमानुसार
कुलवधू नही
नगरवधू बनाना था
उस अभिशप्त सौन्दर्य को
वंचित करते हुए उसे
उसकी नैसर्गिक प्रीत से
क्या आज भी
वैशाली के उस नियम में
कोई बदलाव नजर आता है ...???
( आचार्य चतुरसेन का उपन्यास "वैशाली की नगरवधू" पढ़ते हुए ये लिखना हुआ )
उमगता यौवन
उफनती इच्छाएं लिए
बड़ी हो रही थी
ललाट पर चिंता की रेखा लिए
कुंचित हुई बाबा की भृकुटी
सहस्त्राधिक बालिकाएं भी
इस कुसुमकुञ्ज-कलिका समान
हो सकती हैं क्या ?
इतनी गंध, कोमलता,
सौन्दर्य भला
और किस पुष्प में है ?
दिन-दुगुनी, रात-चौगुनी
अप्रतिम सौन्दर्य-लहरी..
तभी तो
बचपन में ही ले भागे थे अपने गाँव
भय था,
वज्जियों के धिकृत नियम से
कहीं बिटिया
'नगरवधू' ही न बना दी जाए
पर होनी को
कब, कौन टाल सका है ?
बिटिया के मन में उठी
एक कंचुकी की चाह
उस वृद्ध महानामन को
लौटा लाई वैशाली में फिर से
जिसने रच रखा था
आम्रपाली का भविष्य
अपने नियमानुसार
कुलवधू नही
नगरवधू बनाना था
उस अभिशप्त सौन्दर्य को
वंचित करते हुए उसे
उसकी नैसर्गिक प्रीत से
क्या आज भी
वैशाली के उस नियम में
कोई बदलाव नजर आता है ...???
( आचार्य चतुरसेन का उपन्यास "वैशाली की नगरवधू" पढ़ते हुए ये लिखना हुआ )
Saturday, July 6, 2013
प्रीत के संस्कार
इस बार मायके से
माँ के उस
पुराने सन्दूक में पड़े
मूंझ के उस मोनिया ने
मुझे बहुत याद किया था
जिसने सम्भाल रखा था
मेरा बचपन
और उसकी विरासत
बैंक-लाकर की तरह
तरह तरह के
चिकने पत्थर
लाल हरी कुछ साबुत
कुछ टूटी हुई चूड़ियाँ
चिड़ियों की सुरंगी पाँखे
सीप के बटन
राखी के फुंदे
परांदे वाली चोटी
कैसे छुपा रखती थी इन्हें
सबकी नजरों से दूर
आह !
प्रीत के संस्कार
इन्हीं के दिए थे शायद
क्या करूं इनका ?
बचपन तो रहा नहीं
दस पैसे पांच पैसे वाले
पुराने सिक्के जरूर उठा लायी हूँ
पचपन तक
थोडा सा बचपन सहेज रखूं फिर भी ... !!
माँ के उस
पुराने सन्दूक में पड़े
मूंझ के उस मोनिया ने
मुझे बहुत याद किया था
जिसने सम्भाल रखा था
मेरा बचपन
और उसकी विरासत
बैंक-लाकर की तरह
तरह तरह के
चिकने पत्थर
लाल हरी कुछ साबुत
कुछ टूटी हुई चूड़ियाँ
चिड़ियों की सुरंगी पाँखे
सीप के बटन
राखी के फुंदे
परांदे वाली चोटी
कैसे छुपा रखती थी इन्हें
सबकी नजरों से दूर
आह !
प्रीत के संस्कार
इन्हीं के दिए थे शायद
क्या करूं इनका ?
बचपन तो रहा नहीं
दस पैसे पांच पैसे वाले
पुराने सिक्के जरूर उठा लायी हूँ
पचपन तक
थोडा सा बचपन सहेज रखूं फिर भी ... !!
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