कभी सोचा ही नहीं
एक दीवार ...
जिसकी सीमायें अनंत थी
उसके भीतर मैं
पतंग की भांति
स्वतंत्र थी...
अपनी उड़ान
भरने के लिए
अपनी शरीर की
सीमाओं को तोड़कर...
जहाँ एक पुरुष
मेरे लिए
कभी मर्द नहीं रहा...
लेकिन आज मैं
स्त्री क्यूँ बन गयी ?
किसके लिए ...
ये जानकर कि
वो पन्ने....
कभी पलटेंगे नहीं
वो दिन कभी
लौटेगे नहीं
लेकिन
एक अफ़सोस
उस अहसास को
आज भी
जिंदा किये हुए हैं
जिसे मैंने
समझने में मैंने
एक दुनिया
बदल डाली ...
उस दुनिया का
हिस्सा न होकर भी होकर ......
आज क्या उसे अर्पण करू...
"वो" तो 'शरीर'
और 'तमाम' सीमाओ से... ऊपर हैं... .... !
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