Thursday, March 15, 2018

डायरी के पन्ने (पटना से निकलने वाली सामयिक परिवेश पत्रिका के छपी )



गाजियाबाद स्टेशन पर ट्रेन में जैसे ही चढ़ी ,चढ़नेके साथ ही ट्रेन खुल चुकी थी..हम पति पत्नी अपने एक सीट पर सामान रखते हुए भीड़ की ठेलमठेल के आगे जाने का इंतज़ार कर रहे थे तभी मेरी नजर उस लड़की के पाँव पर पडी जो मेरी दूसरी सीट के नीचे बिना चादर के छुपी हुई सी लेटी दिख रही थी !
दिल्ली से इलाहबाद जाने वाली गाड़ी एस फोर के डिब्बे में बहुत मुसाफिर नहीं थे। मेरे सामनेवाली सीट के नीचे एक तक़रीबन सोलह सत्तरह साल की लड़की  कंपकपा रही थी एक झलक देखने से प्रतीत हो रहा था कि वह बहुत डरी हुयी और किसी के आ जाने का भय उसे सता रहा था ! जैसे भीड़ छंटी मैं सीट पर चादर सीट के नीचे तक फैला कर  बिछा दी ,कुछ अनहोनी की आशंका ने मुझे बेचैन कर दिया था ! फिर इनकी सीट पर चादर बिछाई और इन्हें आराम करने को कह कर बाशरुम के दरवाजे तक गयी,वहां लगे बेसिन में नल को चला मुंह धोई और वापस अपने सीट पर आ बैठी ! संयोग से हमें आमने-सामने की लोअर बर्थ मिली थी, मिडिल और ऊपर वाले यात्री शायद दिल्ली से ही चढ़े होंगे क्यूंकि रह -रह कर किसी न 8किसी के खर्राटे की आवाज उभर रही थी ! थोड़ी देर में ही इन्हें भी खर्राटों ने जकड लिया...
धीरे से चादर को उठाते हुवे उस लड़की को मैंने ये कहा की बाहर निकल कर ऊपर सीट पर बैठो ! पहले तो वो डर से निकल ही नहीं रही थी । जाने क्या सोच कर उसे मुझ पर विश्वास हो आया और वह सकुचाते देह को सिमटते और लगभग घसीटते हुवे बाहर निकली..जैसे उसकी देह के पोर-पोर में घाव हुआ हो ! 
प्यार से मैंने इशारा किया की ऊपर मेरी सीट पर खिड़की साईड में बैठ जाओ..मुझसे डरने की आवश्यकता नहीं है और अपना एक बड़ा सा काटन का दुपट्टा निकाल कर उसे दे दिया कि अगर उसे डर सता रहा हो कि कोई देख न ले तो इसे ओढ़ कर अपने बाकी के पूरे देह को ढकने जैसे  कर ले ! उसने वैसा ही झट से किया और खिड़की की तरफ देखने लगी !
उसी बीच टीटी साहब की रौबदार आवाज टिकट दिखाने की...मोबाईल से मैंने अपने दो टिकट दिखाते हुए टीटी से आग्रह की कि एक टिकट और बना दें..अचानक से बिटिया की तबियत खराब हुई तो इसे भी साथ ले जाना पड़ रहा है पढ़ाई छुडाकर...जाने कैसे मैं इतना बड़ा झूठ बोल गयी...जबकि ऐसे मामले या तो जीआरपी वालों को सूचित कर दी जाती है या टीटी से बताकर कोई हल निकाली जाती है...पर अन्तकरण में छुपी एक स्त्री की आवाज ने आज इस घडी में झूठ भी बुलवा दिया..मन में अनगिन आशंकाएं उठ रही थी की जब तक मैं इसके बारे में कुछ जान ना लूँ मैं कोई अन्य सहायता या एक्सन नही लूंगी..
सितम्बर का महीना था ,ना ज्यादे गर्म ना सर्द ...गाड़ी तेज  रफ्तार से चली जा रही थी, खिड़की से आते हवा चेहरे को सुकून तो दे रही थी पर मन में मेरे भी बवंडर सा तूफ़ान था ...आखिर ये लड़की अकेली कहाँ से आ रही है..ऐसे क्यूँ डरी हुई है बार -बार चिहुंक सी जाती है मेरी आवाज पर जैसे कि मैं यमराज हूँ उसके प्राण हरने आई हूँ..घंटों मैं भी मौन और वो तो जाने कहाँ खोई थी..बस कभी-कभी उसकी सिसकियों की आवाज कानो में आ रही थी...
मौन तोड़ते हुए मैंने अपने थैले से जूस का डब्बा निकाला और एक ग्लास में उड़ेल कर उसे देने लगी...पहले वह इशारे से ना ना करी फिर जाने क्या सोचकर  एक सुर में पूरा ग्लास का जूस अपने हलक से नीचे उतार ली...मेरी तरफ देखते हुवे पहली बार उसकी आवाज सुनाई दी की पानी भी है क्या...मुझे तो जैसे क्षण भर को विश्वास ही नही हुआ कि इसने बात किया है...फिर मैं बिस्किट का पैक निकाल कर उसे जबरदस्ती पानी के साथ दिया..इसी लेंन -देंन  के चक्कर में मुझे महसूस हुआ कि उसे तो जोरों का बुखार है...
आदतन मैं अपने साथ बुखार ,उल्टी दस्त की दवा और इलेक्ट्राल इनो अवश्य रख कर चलती हूँ ,एक बार पेट दर्द की बिमारी से ट्रेन में चार घंटे तड़पी थी ट्रेन में तबसे ये आदत पड़ गयी कि इतनी दवाएं पास में रख कर चलनी ही चलनी है ! 
हाँ तो जब वो दो -  चार बिस्किट खाकर पानी पी चुकी तो मैंने एक क्रोसिन निकाल कर उसे थमा दिया वो चुपचाप दवा खा गयी...
अधलेटे बैठे-बैठे हलकी हल्की नींद भी आने लगी...गाडी की रफ़्तार कम होने लगी थी तो लगा कोई स्टेशन पर गाडी पहुँचने वाली है ..कानो में आवाज आई कानपुर..शायद तीन बजने को थे...देख रही हूँ उस लड़की की आँखों में शायद नींद का भारीपन भी नही आया था... बड़ी-बड़ी आंखे सुतवा नाक...करीने के होठ ,गेहुआं रंग ..आकर्षक सी वो बाला जिसकी आँखे फटी सी बस अंदर के कोलाहल में डूबी थी..
मैं ही अपने कपडे ठीक करते हुए उठी..थोड़ा पानी पी..और अब मन बना चुकी थी कि इससे पूछना है की कहाँ से आ रही हो..कहाँ जाना है..तुम्हारी क्या सहायता कर सकती हूँ..इतना तो जाहिर था कि वो खुद को कहीं से बचाकर ट्रेन का सहारा ली है..
तब उसे ही लगा की आंटी आप मेरी वजह से पुरी सीट पर आराम भी नहीं कर पाई..मैं वहां नीचे लेट जाती हूँ इस सीट पर आप लेट जाइए..
उसकी बाजू पकड़ते हुए मैंने उसे मना कर दिया ..पास के गुजरते एक चाय-चाय की आवाज लगाते लड़के से दो कप चाय ली एक उसे थमाकर दूसरा खुद पीने लगी..और पूछ लिया..कहाँ जाना  है बेटा?
सपाट सा जबाब..पटना .. ..।
पटना में कहाँ...?
कंकडबाग से किसी गाँव साईड एरिया बताई..मुझे याद नही गाँव का नाम ..।
कहाँ से आ रही हो..ट्रेन में कहाँ से चढ़ी हो?
दिल्ली से...
मयूर विहार इलाके में अपने गाँव के मुखिया की बेटी के यहाँ रहने आई थी दो महीने से..
रहने क्यूँ आई थी ?
मुखिया साहेब की बेटी और उनके मेहमान का बड़ा बिजनेस है ..उनकी डेढ़ साल की बच्ची को सँभालने के लिए मुखिया साहेब माँ को  बोले थे कि भेज दो इसे मेरी बेटी के साथ....ये घर पर रहेगी..अपने घर जैसा है..बाकि काम के लिए दूसरी बाई है इसे बस बच्ची को और घर की देखभाल करनी है अपने घर जैसे ! 
तुम्हारी माँ क्या करती  हैं?
माँ मुखिया जी के यहां और कई घरों में बर्तन माजती है और बाकी समय मुखिया जी के यहाँ का गेंहू, दाल ,चावल पछोरना रखना..यही काम करती है ।
पापा..?
बाबूजी  नही हैं इस दुनिया में... हम पांच बहन एक छोटा भाई हैं..दो बहिन का विवाह हो चुका है ,मैं चौथे नंबर की हूँ ! मुखिया जी ही बहुत सहायता कर देते हैं हर समय...विवाह  का खर्चा भी वही उठा देते हैं ज्यादे से ज्यादे जितना कर सकते हैं उतना । तो माँ मना नहीं कर पाई..और मैं जून की छुट्टी मनाने आई उनकी बेटी के साथ दिल्ली चली आई उनके घर रहने ! 
बात बहुत साफ़ हो रही थी अब..मैंने पूछा की इतनी जल्दी वापस क्यूँ जा रही हो..या कोई लेने या पहुँचाने क्यूँ नही जा रहा है...?
मैं दीदी को बिना बताये भाग कर जा रही हूँ अपने गाँव..
दीदी को क्यूँ नही बताई...?
आज सुबह से कोई पार्टी आने वाली थी बिजनेस के ही सिलसिले में ..दीदी का मीटिंग था रात तक वो आई नही थी...।
कितना पढ़ी हो..या अभी पढ़ रही हो?
आठवी तक बस..
तो बिना बताये क्यूँ चल दी...?
चल देना जरुरी था ,मैं दीदी से झूठ नही बोल पाती और सच उनके जीवन का जहरीला नाग हो जाता..वो अपने पति को बहुत प्यार करती हैं ...सुना है की प्यार करके शादी की थी..और वो पति...अपने एक मित्र के साथ आज साढ़े पांच  बजे शाम  में अचानक से घर आ गया । मुझे चाय बनाने को बोलकर बच्ची को  ले लिया..मैं चाय लेकर आ रही हूँ तो दोस्त और बच्ची कोई नही दिखा..जो दिखा तो दीदी के पति के रूप में ना दिखकर एक  दरिंदा दिखा जो मुझपर टूट पडा था...मैं खुद को बचा नही पाई और वह फूट फूट कर रोने लगी...घंटो मुझे नोचता खसोटता रहा...और जब बाहर गया तो बाहर से ताला बंद कर गया ..धमकाते हुये की एक घंटा  में आउंगा बच्ची को लेकर तब तक तुम नहा कर अपने को संभाल लो..
उसके जाते ही मैं पिछले दरवाजे को खोल कर जो इंटरलॉक रहता था उसका ख्याल उसे नही आया था मैं उसे खोली बाहर हुई और लॉक करके चाभी घर के अन्दर दराज से डाल स्टेशन भाग आई....।
तुम स्टेशन कैसे आई ,पैसे लेकर घर से...? भागने में पैसे का कहाँ ख्याल रहा होगा...
नही...ऑटो पर बैठके आई पर ऑटो वाले को एक कान की बाली दे आई.. ऑटो वाला मुझे रोक कर जानना चाहा ..अन्धेरा हो चला था...ऑटो वाला और यात्रिओं से पैसा लेने लगा तो मैं भाग कर स्टेशन में घुसी... भागते-भागते प्लेटफार्म नंबर सोलह पर यही गाडी कड़ी दिखी और एनाउंस हो रहा था की इलाहबाद तक ये गाडी जाएगी..मुझे याद आया की इलाहाबाद होते हुवे मैं पटना से आई थी तो मैं इसी ट्रेन के बाथरूम में घुस गयी .. बाद में खडा नही हुआ जा रहा था तो आकर इस सीट के भीतर घुस कर दुबकी रही...एक घंटे तक तो किसी ने देखा नहीं पर जब ट्रेन रुकी तो आप जब चढ़ी तो देख लीं...और अबकी वो और जोर से रोने लगी...उसकी आवाज सुन मिडिल बर्थ पर सोये एक यात्री ने मुंह उठाकर नीचे झाकने लगा..अंदेशा समझ मैं उसका सिर सहलाते हुवे बोली की तेज बुखार में सीर दर्द होता है..बर्दाश्त करो बेटा...यात्री समझ गया की तबियत ख़राब है वो फिर मुंह घुमाकर सो गया...
इशारा करके उसे चुप कराई ...
कब इलाहाबाद गाडी पहुंची मुझे होश नही रहा... होश तब आई जब ये बोले की उठो चादर वगैरह पैक करो...और ये कौन है जिसे सुलाई हो..? अब मेरे सामने समस्या ये थी कि इसे कैसे इसकी माँ तक पहुचाऊं ...रोने के बाद सुबकते सुबकते उसका सीर मेरे कंधे से होते हुवे गोदी में  आ गया था ..और वो बहुत चैन की सांस लेते हुए आँख बंद कर मेरी गोद में पड़ी रही...
उस समय कुछ बता नही सकी इनको..इशारा बस की कि उतरते हैं तो...
ट्रेन से उसे भी उतारना था...उसके गंतव्य तक भेजने का निश्चय मैं मन ही मन कर चुकी थी..पर कैसे..कहीं रस्ते में फिर कुछ न हो..इसी उधेड़बुन में प्लेटफार्म पर उतरी उसे लिए और इनसे कहा  कि वेटिंङ्गरूम तक चलें..
वेटिंङ्गरूम तक जाने में कितनी परेशानियां आई..उसको चादर ओढा कर ले जाना पडा...ढकते ढूकते...क्यूंकि उसके कपडे खून से लत -फत थे... जिस  चादर  पर बिठाई थी वो चादर भी खराब हो चुका था ....वेटिंगरूम जाकर  उसे बाशरूम में ले  गयी..सारे कपडे उसके चेंज कराई...मेरे कपडे  ढीला ढाला  हुए पर उतनी सुबह मजबूरी  भी थी..अंडरवियर साथ में काटन वाला सलवार फाड़ कर थमा दी थी कि अब जो कपड़ा पहने वो ब्लीडिंग से ख़राब ना हो...पता नही ब्लीडिंग हो भी रहा था या नही ,सुरक्षा बस सब जरुरी लगा।
सुबह कोई दूकान खुला भी तो नही था...नहाकर निकली चल नही पा रही थी ,लपककर  मैंने सहारा दिया और ब्रेंच नुमा चेयर पर लिटाया.. इनसे आग्रह ही की कि कोई डाक्टर मिल जाता तो.. 
उसको कहीं बाहर लेकर जाना भी उचित नही था..इन्होने कहा की तुम रुको मैं घर से लौट के आता हूँ....
ये चले गये उस बीच  उसे चाय और टोस्ट लेकर खिलाई और क्रोसिन फिर से दिया..मन होता था घर ले जाऊं..पर केवल मेरे मन से क्या होना था..ये पुरुष हैं ..हमसे समझदार हैं..इन्होने दुनिया देखी है , इनका कहना था की इलाहबाद स्टेशन पर यहाँ के जीआरपी पुलिस में इतल्ला कर देते हैं..पहुँचाने की जिम्मेदारी उनलोगों की ही होगी... पर जाने क्यूँ मेरा मन नही माना..दिमाग तुरंत जबाब दिया की नही.. तुझसे जितना हो सकता है कर दे.. पुलिस वगैरह को तो बिलकुल खबर ना कर...!
जब ये घर से लौटकर आये तो साथ में इनके हमारे फेमिली डॉक्टर थे..। सब कुछ शायद इन्होने पहले ही बता दिया था ..आते ही वे सरिता को इंजेक्शन दिए ,कुछ दवाएं लाये थे ..जिसमे से एक खुराक खिला दिया गया ! साथ में ये सेव केला जूस और बिस्कुट्स लेते आये थे जिन्हें एक थैले में मैंने रखा.. ।
उसके खून से लतफत कपडे को एक थैले में रखकर दो तीन पैकेट के भीतर संभाल दी ये कहकर कि कहीं तुम्हारे माँ को पुलिस थाने  जाने की जरूरत हुई तो ये प्रूफ काम आयेगा ! 
सब इकठ्ठा एक बड़ा थैला में नीचे ऊपर करके रख दी कि यात्रा करते समय किसी दुसरे के मन में ये न आये की खाली हाथ क्यूँ है ..
पतिदेव ने टिकट कटा दिया...हम पटना जाने वाली ट्रेन का इंतज़ार कर रहे थे की ये तो सरिता को सुरक्षित संतोषजनक स्थान पर बिठा दें..ट्रेन दो घंटे बाद की थी..
सरिता को इंजेक्शन के कारण या आराम मिला होगा उसे झपकी आ गयी...उसके चेहरे को मैं निहार रही थी...मासूम सी बिलकुल छुई-मुई सी दिख रही थी  जिसे उस दरिन्दे ने रौद डाला..जगह जगह खरोच के निशान.. ओह्ह रे हैवान उसे तनिक दया तक नही आई इस कोमलांगी को देखकर..?... क्या उसे इसमें अपनी बिटिया का अक्स नही दिखा ...जिस बिटिया का गू-मूत तक ये करती थी वहां रहकर ? उसकी तकलीफें देखकर मैं भूल गयी थी कि मैं खुद अपनी दवा कराकर , घूटने में इंजेक्शन लगवाकर वापस लौट रही थी..जबकि पिछले दो महीने में ये इंजेक्शन लगा तो लगे की चौबीस घंटा चलना फिरना मुश्किल ..पर अबकी क्या हो गया है जो मुझे अपनी तकलीफ याद तक नही रही...उसके दुःख को आत्मसात करना चाह कर भी नही बाँट पा रही थी उसकी तकलीफें ! डाक्टर को जाना था वापस..उन्होंने कहा की ब्लीडिंग रूक जाये उसके लिए और बाकी तकलीफों के लिए दो इंजेक्शन लगा दिया है..आप परेसान मत होइए इसे आराम मिल जाएगा जल्द ही ! डेढ़ घंटे सोई रही सरिता ,आँख खुली तो कुछ आराम सा मसूस हो रहा था उसे ! मुझसे नजर मिली तो असफल  मुस्कुराने का प्रयास की , उसके केश को मैं गूथना चाहती थी ..इशारा की तो खुद ही उसने कंघा फिराया अपने बालों में.. स्टेशन से ही पूड़ी सब्जी लेकर उसे खिलाई ..इन्होने पांच सौ रूपया मुझे दिया की उसे दे दो ..साथ में थोड़ा चेंज मेरे पास था ...मिलाकर उसे दी की अपने पास ठीक से रख लो ..पटना उतर कर ऑटो रिक्शा वगैरह जो भी रिजर्व तुम्हारे घर तक जाए चली जाना..
ट्रेन आई ग्यारह बजे ..स्लीपर बोगी की तरफ हम लोग लेकर गये..और टीटी से बात करके एक सीट ले ली..और उसे बिठा दिया.. दस मिनट मैं भी बैठी रही उसके पास..फुसफुसाहट में समझाई भी की किसी और से जिक्र नही करोगी जब तक घर नही पंहुचा जाती तुम ! वो हाँ..हाँ में सर हिलाती रही...खाने पीने की हिदायत दी और एक पन्ने पर अपना मोबाईल नंबर लिखकर दे दी कि घर पहुँचकर उचित लगे या सम्भव हो तो मुझे बता जरुर देना..और अपनी माँ से बात करा देना ..बगल में एक सम्भ्रान्त महिला से बता दी की मेरे पास रहती थी अभी माँ के पास जाना है..इसकी माँ की तबियत खराब है तो रास्ते में जरा सयानी बिटिया का ख्याल रखियेगा ,,चुकि मेरी भी तबियत ठीक नही है वरना मैं गाँव तक छोड़ के आती.. महिला अच्छी ही थी..और सरिता खुद को बीमार दिखने से काफी बचा रही थी..इन्होंने इशारा किया कि ट्रेन अब खुलेगी...नीचे उतर कर खिड़की पर खड़ी हो जाओ तब तक...! 
ये सुनते ही वह बैठे-बैठे ही मुझे जोर का भींच ली...माँ.....कहती हुई जार-जार रोने लगी...मैं भी खुद को कहाँ रोक पाई थी..रात से जितना कुछ अन्दर घुमड़ रहा था ...बरस जाना चाहा...और पुक्का फूट पडा... एक दुसरे में चिपकी हम दोनों को यही आकर अलग किये जब ट्रेन रेंगने लगी थी...दूर तक जाती हुई ट्रेन की खिड़की से झांकती उसकी दो कमल सी आँखे भूलती नही आज भी...घर आकर निढाल पड़ गयी..शक्ति ही नही कि खुद को हिला डूला सकूँ..
चेतना वापस लौटना शुरू की रात आठ बजे के बाद जब एक किसी पीसीओ से फोन आया था जिसमे सरिता की मद्धम ही आवाज कि मैं घर पहुँच गयी..मेरी माई से बात कर लीजिये..
मैथिलि और हिंदी मिक्स भाषा उसकी माँ का काफी डरी और रोती हुई आवाज...जो मुझे समझ आया था की भगवान् आपके बाल बच्चा को हमेशा खुश  रखें आपकी फुलवारी खिली रहे...
ये पूछने पर कि कोई कार्यवाही आप करेंगी उस इंसान के लिए जिसने आपकी बिटिया के साथ ऐसा किया...
जबाब था..क्या करुँगी..कुछ नही...समाज में रहना है..अभी गाँव  निकाला हो जाउंगी और भी बच्चे हैं सबकी जिन्दगी बर्बाद हो जायेगी..पर अब अपनी बच्चियों को कहीं नही भेजूंगी मेमसाहेब कहीं नही....!
वसुन्धरा पांडेय

Sunday, May 1, 2016

प्रेम में

खुद को विसर्जित कर देना
किसी के लिए
किसी को
आसान नही होता
आसान तब होता है प्रेम में
हम जब विसर्जित होते हैं
सौंपते हैं पहाड़ों भरा आकाश
लहलहाते अरण्य वन
कोमल पत्तियों सी
ह्रदय का यह पट
हाँ....सौंपते हैं
अपनी बूँद-बूँद लहू
रातों की नींदें
विसर्जित करते हैं अपने अहम्
क्यूँकी..तब होते हैं हम प्रेम में ..!!

Monday, January 4, 2016

स्पर्श: कवयित्री वसुंधरा पाण्डेय की 8 कवितायेँ

स्पर्श: कवयित्री वसुंधरा पाण्डेय की 8 कवितायेँ: ’ मेरे लिए कविता लिखना सांस लेने जैसा है – मुझमें जीवन ऊर्जा का संचार करती हैं कवितायेँ /और मेरा मानना है कि कविता में प्राण तत्वों की...

Saturday, January 2, 2016

तुम्हारी याद

कोलाव तट की 
सोने की रेत बीनती 
सपनो के पंख फड़फड़ाती 
पहाडी सांझ सी उतर मेरे आँचल में 
सितारे टाँकती 
.....तुम्हारी याद ..!
सिहरन भरी हवा सी
आकाश के सूनेपन में बजती
अनुभूति की तरह नदी को
छूती सहलाती बहती चली आती...
तुम्हारी याद है कि सखी मेरी .. ...!!


Tuesday, December 29, 2015

साहित्य अमृत पत्रिका के जनवरी 2016 के अंक में प्रकाशित मेरी पहली कहानी

वसुन्धरा पाण्डेय की कहानी

साथ दोगे न मितवा
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बचपन में दशहरा के मेले से एक पेंटिग खरीद लायी थी. पेंटिग क्या था... आसमान में स्वछंद उड़ान भर रहे परिंदों को निहारती, कमजोर परों वाली एक छोटी सी चिड़िया की पेंटिंग.  पता नही क्या दिख गया था मुझे उस में ...तब शायद सात की थी, पेंटिंग की क्या समझ होनी थी. फिर भी कहीं न कहीं, कुछ न कुछ जुड़ रहा था, मेरे अंतर्मन की किसी ग्रन्थि से कि अनायास ही, मेला घूमने को मिले दस रूपये में से सात, उसे देखते ही दुकानदार के हवाले कर दिए.
कहते हैं, अतीत हमारी मूर्खताओं का चलचित्र होता है. पर क्या सच में... यह मेरी उस समय की मूर्खता रही होगी...?
शायद नहीं ! शायद उस समय मुझे अपनी स्थिति का सहज अनुमान रहा होगा. शायद उस चिड़िया की विवशता,  कहीं न कहीं  मेरे बालमन को प्रतिबिम्बित कर रही थी.  कि बार-बार उसे देखती और सोचती कि इसके पंख इतने कम क्यों हैं ? इतने कम कि कहीं-कहीं देंह का चमड़ी भी दिख रही थी, पर कितनी आतुर थी उड़ने को वह चिड़िया.. और उसका आकाश को निहारना. शायद मेरी तरह,  अपने माँ-बाप से बिछड़ कर, जंगल की जमीन पर आ गिरी होगी !
 आह !! कोई उसे उड़ना सीखा देता...
 इंसानी बच्चें हो या पशु-पंक्षी के... पर क्या कोई गैर, किसी को उड़ना सिखाता है, सिवा माँ-बाप के या फिर समय के..?  समय भी अच्छा शिक्षक है... लेकिन, कठोर है, बहुत कठोर..!
कई बार अपने आँगन की अलगनी पर देखती, चींचीं चूंचूं करती फुदकती गौरैया को.., खपरैल में कई जगह अपने  घोसले  बनाये हुए चिड़ियों का जोडे ...अंडे देती हुईं,  बारी-बारी से अंडे सेते, चिड़िया और चिडा...! कई बार एकाध अंडा गिर जाता तो कितना शोर मचता था. उनकी उस शोर मचाने वाली भाषा में दुःख कितना गहरा रहता होगा. शायद आदमी के लिए इसका अनुमान लगा पाना सम्भव नहीं. पता नहीं, जीवन में नैसर्गिक  सुख की तरह नैसर्गिक दुःख भी उतने ही घनीभूत होते हैं या नहीं ?
कई बार उनको खुश होते हुए भी देखा था मैंने...घोसले  में उनके बच्चे ची ची, चूं चूं कलरव करते हुए...गौरैया,गौरा -कहीं से उड़ कर आते और चोंच में लाये हुए दाने उनके चोंच में डाल देते...आह ! कितना सुखद होता था उस समय उनका चहकना और उछल-उछल कर चोंच से दाना खाना...और उनकी ख़ुशी मुझे आनंदित कर जाती थी. तब मैं वहीं चारपाई पर बैठे , लेटे हए या पढ़ते हुए या बरामदा आँगन बुहारते हुए या संयुक्त परिवार में से किसी सदस्य के दिए हुए कोई काम निपटाती, और उन्हें निहारती रहती...!
 अभी सोचती हूँ सयुंक्त परिवार किसे कह रही हूँ...?
 माँ और  पिता तो वहां रहते नही थे, मैं और मेरे छोटे भाई का रहना होता था, उस बड़े सयुंक्त परिवार में...जहाँ एक अदद दादी थी, पिताजी की सौतेली माँ,  बाबा थे, पिता के पिता होते हुए भी, अपनी उस दूसरी वाली  के होकर रह गये थे. भरा-पूरा परिवार मेरी उस सौतेली दादी का था. दो बेटे बहुएं... उनके बच्चे... महरी, धोबिन, कुछेक और नौकरों साथ हम भाई-बहन भी नौकर...!

कई बार मेरे बाल मन को बहुत तकलीफ होती थी, जब बुखार में तपती रहती थी उसी बरामदे वाली चारपाई पर कई-कई दिन...
शायद, माँ बाप के साथ ना रहने के बिछोह का बुखार होता था, या मेरी गल्ती ना होने पर भी, किसी और की गल्ती की डांट खाने का बुखार, या फिर माँ-बाप की छत्र-छाया में पलनेवाले और उनके अभाव में पलनेवाले बच्चों के साथ होने वाले भेद-भाव का बुखार, जिसमें सुबह दातुन के बाद सब बच्चों को मिलने वाले पार्लेजी बिस्कुट से मुझे वंचित रखा जाना भी शामिल था...!
 पर उस बुखार की कोई दवा नहीं होती थी. पता नही, बिन दवा के कैसे ठीक हो जाता था.  सुबह चाय के साथ रात की बची रोटी खाने से, या तीसरे आँगन में घनघोर तुलसी मईया की महक से, या गिरे हुए तुलसी पत्रों को चबा जाने से  या पोई की लतर  से लिपट कर खेलने से, या मेहंदी अनार के उफनती  महक से या अरुई का पता तोड़, लाकर किसी  से उसका  साग बनवा कर खा लेने से या गौरैया को उनके बच्चों को भोजन खिलाते देख... वह बुखार उतर ही जाता. पर कैसे ?..ठीक ठीक याद नही..
पता नहीं, धुंधली सी ये सब यादें एक साथ क्यों चली आ रही हैं ?
---“स्मृतियाँ ऐसे ही खेल कूद किया करती हैं....विवरण ठीक से आ रहा है न ?”
---“उफ्फ्फ...बहुत सुन्दर...अद्भुत.. पर एक बात.. रुकिए...!”
---“बोलो”
---“और नौकरों के साथ, हम भाई-बहन भी नौकर..??”
---“क्यों ठीक नहीं है क्या?”
---“भाई नही... उसे ठीक से ही रखा जाता था... मेरे से ही उसका काम भी लिया जाता था..!--वह  बचपन से दादा-दादी के पास रहा ..पता नही क्या लगाव था उन लोगों को उससे...! कहीं भी जाते, एक साल का था, तबसे उसे लेकर जाते थे...! कुम्भ मेला में भी लेकर गये थे...सब कहते थे, जो देखता था, कि बूढ़े-बूढ़ी को लगता है बुढापा में बच्चा हुआ है...!”
---“तुम ...तस्वीर  की बात कर रही थी  जो,  मेले से खरीद लायी थी... क्या बना उसका ?”
---“बारिशों के मौसम में अक्सर खपरैल घर चूने  लगते हैं और हर साल खपडों की अदला-बदली में कई बार दीवारों से लग कर बहे हुए बारिश के पानी से पेंटिग धुंधला गयी थी. आज अब उस पेंटिग को सोचती हूँ तो सहज ही अनुमान लगता है, बनाने वाले या बनाने वाली के मन की बेदना का. ...मुझे याद नही की किसी पुरुष ने बनायी थी या औरत ने...
याद आ रहा है  जब तेरह साल में प्रवेश की थी और उस साल भी मेले से एक पेंटिंग लाई थी ...बेहद खूबसूरत और रंगीन, इतने सारे रंग थे ....सारे रंगों का समायोजन , अद्भुत बन पडा था, लगता था बनाने वाला, जीवन की रंगीनियों से खेलना चाहता हो जैसे...!”
सात और तेरह बरस, दोनों उम्र की पेंटिंग की खरीदारी का अर्थ भले ही अभी तक नहीं समझ पायी हूँ ...क्या और क्यूँ? ...लेकिन किशोरावस्था की वे बंदिशे, वह जकडन, वह भेद-भाव उन लम्हों की कसक,  आज भी बहुत कसमसाती, तडपाती है...आखिर, हम लडकियों को ही क्यों झेलना होता था यह सब ..क्यों नहीं उड़ने दिया जाता था... उन्मुक्त परिंदों की तरह ...???
बीते को लिखने लगूं तो  पता नहीं क्या-क्या रिसता चला आये !
अब, जब-तब, मन का बिक्षिप्त होना, इस लाईलाज बिमारी में जकड़े जाना, इस सबके बीज और जडें,  मुझे वहीं दिखाई देते हैं..!
इसके बाद भी हम लडकियों में कैसी जिजीविषा होती है...इस तकलीफ को भी अपने हौसले से आज तक मात देती आई हूँ...क्यूंकि, मुझे असहाय होकर, उड़ते परिंदों को देख रही, पेंटिंग वाली चिड़िया नही बनना था..जो कि मैं थी..

बहुत हो लिया जिम्मा-जिम्मेदारी. अब एक गुणात्मक जीवन जीना चाहती हूँ.. मात्रात्मक नही... बीते लम्हों जैसे लोगों की चुचुआहट,  मेरी जिन्दगी का एक-एक लम्हा कम कर देते हैं. अलग-अलग लोग..अलग-अलग इलाज..!  अब बचे-खुचे जीवन को बेहद सार्थक करना चाहती हूँ. जो भी दिन, साल, दशक, दो दशक जियूँ अपने हिसाब से जीना चाहती हूँ ....
हाँ..! मैं उड़ना चाहती हूँ  अछोर आसमान में, अपने समग्र अस्तित्व के साथ.. साथ दोगे न.. मितवा.. ..।