कवि, कथाकार मुरली मनोहर श्रीवास्तव ने पुस्तक 'चेतना के दस द्वीप' पर विस्तृत मंतव्य व्यक्त किया है।
प्रश्न हैं, उत्तर भी...अभी रास्ते की तलाश बाकी है
विचार और बंदूक में सदैव जंग होती आई है और इस बात पर विश्वास करिये कि विचार जीतता है। बंदूक को आप कुछ और भी कह सकते हैं, तीर-धनुष, बॉम्ब या फिर कोई भी हथियार। क्यों होता है ऐसा? सीधी सी बात है बंदूक को कलम से डर लगता है, विचार से अधिक शक्तिशाली कोई हथियार नहीं है। इसे थोड़ी गहराई से समझना होगा कि विचार बड़ा है या गोली बारूद। विचार से आप क्या समझते हैं? यदि विचार को आप मात्र किसी कविता कहानी या उपन्यास के रूप में देख रहे हैं, लिखने वालों को बुद्धिजीवी समाज यदि उन्हें समाज के हाशिये पर रख रहे हैं तो भारी गलती कर रहे हैं। विचार बड़ा है कि तोप, बम या रॉकेट, इसे समझना हो तो बस इतना समझ लीजिये सब से पहले तोप, बम या गोली बारूद बनाने का विचार जन्म लेता है। इसके बाद ही किसी बम का निर्माण होता है चाहे वह एटम बम ही क्यों न हो। इसलिए विचार किसी भी बम या हथियार से बड़ा है। गैलीलियो ने जब कहा कि धरती चपटी नहीं गोल है तो वह एक विचार था। ऐसा विचार जो उस युग की मान्यता के विरुद्ध था। सुकरात ने जब जहर पीया तो यह सिद्ध किया कि व्यक्ति तो मर सकता है विचार नहीं। इसलिए भले ही आज सुकरात हमारे बीच न हों, उनके विचार जीवित हैं। मैं विचार से अधिक विचार के ताकत की बात करना चाहता हूँ।
मैं आपको मात्र यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि विचार की शक्ति किसी भी बड़े से बड़े हथियार से अधिक शक्तिशाली है। यह विश्वास पैदा होना इसलिए जरूरी है क्योंकि इसके बाद की बात इस विश्वास के बाद ही संभव है।
जरा सोचिए कितना आसान है किसी इंसान को मार देना लेकिन कैसे हर युग में ये बुद्धिजीवी बच जाते हैं, जिंदा रहते हैं? सवाल बहुत से हैं लेकिन एक दो बात और करते हैं और तब आगे बढ़ते हैं। मेरा सवाल यह है कि एक अदना सा कवि या लेखक कर क्या सकता है? उसके हाथ में एक नन्ही सी कलम के सिवा और है क्या? बस इतना ही कि वह विचार अभिव्यक्त कर दे, सच को कह दे, समय और समाज को आईना दिखा दे। कारण यह कि विचार हम सभी के पास हैं लेकिन उसे अभिव्यक्त कर देने का साहस और क्षमता सबके पास नहीं है ।
इसके आगे मैं दो तीन बातें और रख कर पुस्तक की विषय वस्तु पर चलता हूँ? पहला यह कि अभिव्यक्ति के लिए हर युग और हर लेखक कवि कलाकार अपने अनुरूप माध्यम चुनता है। उसे कहता है, यह उसका अधिकार भी है। दूसरी बात यह कि इस लिख देने
भर से लेखक या कवि इतना बड़ा नहीं हो जाता कि वह कुछ भी कह दे या वह जो कह रहा है मात्र वही सत्य है। यह प्रारम्भ में इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि इस पुस्तक में कुछ कवितायें अपने इतिहास और पौराणिक चरित्रों से सवाल पूछती हैं। इतना ही नहीं, इस क्रम को वे लगातार बड़ा करती जाती हैं। यहाँ तक कि वे पाठक को थोड़ी देर के लिए मेसमराइज़ (मुग्ध) कर देती हैं लेकिन थोड़ी ही देर में मैं इस कवि से भी सवाल पूछ बैठता हूँ कि ऐ दोस्त, तुम अपने सवालों के उत्तर इतिहास या पौराणिक चरित्रों से क्यों मांग रहे हो? वे आज हमारे बीच नहीं हैं। इतना ही नहीं, वे ऐतिहासिक और पौराणिक हुये हैं तो अपने समय की परिधि में उन्होंने उस दौर के सवाल सहे हैं, उनके उत्तर खोजे हैं। समझ को अपने चरित्र से उस उत्तर की स्वीकारोक्ति तक ले कर गए हैं। ऐसे में थोड़ी देर तो ऐसी कविता आश्चर्य में डालती है, लेकिन इसके बाद यदि यही शैली हो जाये और कवित्त में चमत्कार पैदा करने की कोशिश करे, बजाय इसके कि वह वर्तमान समय के प्रश्न के उत्तर आज के संदर्भ में न खोज सके, उन प्रश्नों से सीधे संघर्ष न कर सके तो यह लेखन कागजी हो कर अधूरा रह जाता है। जैसे हम ऐतिहासिक चरित्र के माध्यम से कथ्य तो रख सकते हैं लेकिन उनसे वर्तमान समय में प्रश्न नहीं पूछ सकते। हमें अपने समय के उत्तर स्वयं तलाशने होंगे, इसे एक पंक्ति में लिखूँ तो कबीर अपनी बानी बोलते हैं किंतु इतिहास मौन है। इतिहास को मौन ही रहना था। उसके आलोक में बोलना तो हमें था, भले ही हमने दाराशिकोह के सर कलम होने और उस पर औरंगजेब के घड़ियाली आंसू बहाने का रूपक प्रस्तुत किया हो (बोधिसत्व) या फिर खांडव वन जल रहा है से उठे प्रश्न (अंशु मालवीय)। पुस्तक में रूपक बहुत गहरी चोट करते हुये हैं और प्रश्न भी उठ रहे हैं लेकिन अभी उन प्रश्नों के उत्तर तक आना बाकी है।
चलिये इतनी बात के बाद अब मैं पुस्तक की विषय वस्तु पर चलता हूँ और कोशिश करता हूँ कि यह पुस्तक अपने साथ किन सवालों को उठा रही है और इन सवालों के बीच कहाँ तक समाज के भीतर पैठ बना कर उत्तर खोजने में सफल हो रही है। औपचारिक रूप से बात करूँ तो अभी दो तीन दिन पहले पुस्तक मेले में मैंने यह पुस्तक ली। इस पुस्तक के विषय में मैं पहले ही चर्चा कर चुका हूँ। इस पुस्तक में दस कवि हैं, साथ ही संपादक के रूप में सत्यकेतु मौजूद हैं। पुस्तक इलाहाबाद के सांस्कृतिक परिवेश से आती है और वहाँ कि विरासत को आगे बढ़ाने का वादा भी करती है। इतना तो निस्संदेह कह सकता हूँ कि सभी कवितायें अच्छी हैं।
मैं किसी कवि की समीक्षा नहीं कर सकता। हाँ, इस संग्रह में जो रचनायें हैं, मात्र उनके विषय में लिख रहा हूँ। इलाहाबाद का नाम जुड़ा होने से रचनाकारों से मेरी अपेक्षा भी अधिक है जो सामान्य से ऊपर जा कर ठहरती है। इस क्रम में देखें तो संतोष चतुर्वेदी कविता की भूमि पर सामान्य से ऊपर नहीं बढ़े हैं, बसंत त्रिपाठी अपने प्रेम को युद्ध के बाद भी कोमलता में ढूँढते नजर आते हैं इसलिए आशावादी हो गए हैं। बस इतना ही अंतर है बसंत जी की कविता में सामान्य से थोड़ा सा आगे बढ़ जाने में। वसुंधरा पांडेय की बात करूँ तो वे 'कल रात डूब गई थी मैं' लिखते ही अपनी पहली कविता से ही अपने हृदय के प्रवाह को कह जाती हैं। प्रेम में बहते हुए इसके बाद वे आम्रपाली में गंभीर कथ्य कहती हैं जहाँ वे कुलवधू और नगरवधू के माध्यम से मात्र वैशाली ही नहीं, सम्पूर्ण समाज और सभ्यता को कठघरे में खड़ा करती है, 'कुलवधू नहीं नगरवधू बनना था उस अभिशप्त सौंदर्य को,/वंचित करते हुये उसे नैसर्गिक प्रीत से'। वहीं, विवेक निराला पासवर्ड कविता लिखकर थोड़ा सा आगे बढ़ते हैं। अंशुल त्रिपाठी कुल्फी की घंटी और इलाहाबाद में प्रेम से प्रभावित करते हैं।
रविकांत सादगी से हंसते हंसते अत्यंत तीखे हो जाते हैं और चमारिन लिखते लिखते अत्यंत ही उल्लेखनीय हो जाते हैं, जबकि संजीव हुसैन और ड्राइवर टू भी अच्छी कवितायें हैं। संध्या निवेदिता जब 'एनेस्थीसिया' में लिखती हैं, 'जब तुम प्रेम तोड़ना धीरे धीरे तोड़ना'...तब सामान्य प्रेम में हैं, लेकिन जैसे ही अगली पंक्ति में लिखती हैं, 'भरोसा तोड़ना तो पहले एक छोटा एनस्थीसिया देना'...तो वह प्रेम से आगे बढ़ कर दर्शन में पहुँच जाती हैं। वे कविता लिखने में एक कदम आगे बढ़ती हैं, अपने लेखन को जस्टिफ़ाई करती हैं। वहीं वाज़दा खान काजल की डिबिया लिखकर एक कालजयी बात कह जाती हैं।
पुस्तक में कवितायें हैं और कई रंग में ढली हुई हैं। प्रेम लिखा गया है, वर्तमान समय के सरोकार हैं और तीखे व्यंग्य भी। साथ ही लेखकों ने विभिन्न रंग की रचनायें रखी हैं। पुस्तक में सत्यकेतु जी का सम्पादन एक मजबूत पक्ष बन कर उभरा है। सभी रचनायें चयनित रचनायें हैं और सत्यकेतु जी ने बड़े मनोयोग से प्रत्येक रचना को पढ़कर उसके विषय में विस्तार से लिखते हुये संपादक की भूमिका को सराहनीय ढंग से निभाया है।
अंत में...
इस पुस्तक में बोधिसत्व, अंशु मालवीय बड़े ही प्रभावी ढंग से वर्तमान समय के प्रश्न उठाते हैं। भले ही वे दाराशिकोह, पागलदास या खांडव वन जल रहा है का रूपक प्रयोग करें। रविकांत से लेकर वाज़दा खान और नवोदिता गहरे सामाजिक सरोकार सामने रखती हैं। रविकांत के चमारिन और वसुंधरा पांडेय के वैशाली के रूपक लंबे समय तक याद रखे जायेंगे। इतना कह सकता हूँ, यह पुस्तक ऐसी है जिसमें सभी के लिए बहुत कुछ पढ़ने योग्य है। यह पुस्तक समय से प्रश्न पूछते हुये, कहीं कहीं उन प्रश्नों के उत्तर प्रदान कर रही है। हाँ, अभी रास्ते की तलाश बाकी है।
-मुरली मनोहर श्रीवास्तव
संभावना : पुस्तक समीक्षा – चेतना के दस द्वीप | https://readerblogs.navbharattimes.indiatimes.com/sambhavna/book-review-chetana-ke-das-dveep/
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