Tuesday, December 29, 2015

साहित्य अमृत पत्रिका के जनवरी 2016 के अंक में प्रकाशित मेरी पहली कहानी

वसुन्धरा पाण्डेय की कहानी

साथ दोगे न मितवा
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बचपन में दशहरा के मेले से एक पेंटिग खरीद लायी थी. पेंटिग क्या था... आसमान में स्वछंद उड़ान भर रहे परिंदों को निहारती, कमजोर परों वाली एक छोटी सी चिड़िया की पेंटिंग.  पता नही क्या दिख गया था मुझे उस में ...तब शायद सात की थी, पेंटिंग की क्या समझ होनी थी. फिर भी कहीं न कहीं, कुछ न कुछ जुड़ रहा था, मेरे अंतर्मन की किसी ग्रन्थि से कि अनायास ही, मेला घूमने को मिले दस रूपये में से सात, उसे देखते ही दुकानदार के हवाले कर दिए.
कहते हैं, अतीत हमारी मूर्खताओं का चलचित्र होता है. पर क्या सच में... यह मेरी उस समय की मूर्खता रही होगी...?
शायद नहीं ! शायद उस समय मुझे अपनी स्थिति का सहज अनुमान रहा होगा. शायद उस चिड़िया की विवशता,  कहीं न कहीं  मेरे बालमन को प्रतिबिम्बित कर रही थी.  कि बार-बार उसे देखती और सोचती कि इसके पंख इतने कम क्यों हैं ? इतने कम कि कहीं-कहीं देंह का चमड़ी भी दिख रही थी, पर कितनी आतुर थी उड़ने को वह चिड़िया.. और उसका आकाश को निहारना. शायद मेरी तरह,  अपने माँ-बाप से बिछड़ कर, जंगल की जमीन पर आ गिरी होगी !
 आह !! कोई उसे उड़ना सीखा देता...
 इंसानी बच्चें हो या पशु-पंक्षी के... पर क्या कोई गैर, किसी को उड़ना सिखाता है, सिवा माँ-बाप के या फिर समय के..?  समय भी अच्छा शिक्षक है... लेकिन, कठोर है, बहुत कठोर..!
कई बार अपने आँगन की अलगनी पर देखती, चींचीं चूंचूं करती फुदकती गौरैया को.., खपरैल में कई जगह अपने  घोसले  बनाये हुए चिड़ियों का जोडे ...अंडे देती हुईं,  बारी-बारी से अंडे सेते, चिड़िया और चिडा...! कई बार एकाध अंडा गिर जाता तो कितना शोर मचता था. उनकी उस शोर मचाने वाली भाषा में दुःख कितना गहरा रहता होगा. शायद आदमी के लिए इसका अनुमान लगा पाना सम्भव नहीं. पता नहीं, जीवन में नैसर्गिक  सुख की तरह नैसर्गिक दुःख भी उतने ही घनीभूत होते हैं या नहीं ?
कई बार उनको खुश होते हुए भी देखा था मैंने...घोसले  में उनके बच्चे ची ची, चूं चूं कलरव करते हुए...गौरैया,गौरा -कहीं से उड़ कर आते और चोंच में लाये हुए दाने उनके चोंच में डाल देते...आह ! कितना सुखद होता था उस समय उनका चहकना और उछल-उछल कर चोंच से दाना खाना...और उनकी ख़ुशी मुझे आनंदित कर जाती थी. तब मैं वहीं चारपाई पर बैठे , लेटे हए या पढ़ते हुए या बरामदा आँगन बुहारते हुए या संयुक्त परिवार में से किसी सदस्य के दिए हुए कोई काम निपटाती, और उन्हें निहारती रहती...!
 अभी सोचती हूँ सयुंक्त परिवार किसे कह रही हूँ...?
 माँ और  पिता तो वहां रहते नही थे, मैं और मेरे छोटे भाई का रहना होता था, उस बड़े सयुंक्त परिवार में...जहाँ एक अदद दादी थी, पिताजी की सौतेली माँ,  बाबा थे, पिता के पिता होते हुए भी, अपनी उस दूसरी वाली  के होकर रह गये थे. भरा-पूरा परिवार मेरी उस सौतेली दादी का था. दो बेटे बहुएं... उनके बच्चे... महरी, धोबिन, कुछेक और नौकरों साथ हम भाई-बहन भी नौकर...!

कई बार मेरे बाल मन को बहुत तकलीफ होती थी, जब बुखार में तपती रहती थी उसी बरामदे वाली चारपाई पर कई-कई दिन...
शायद, माँ बाप के साथ ना रहने के बिछोह का बुखार होता था, या मेरी गल्ती ना होने पर भी, किसी और की गल्ती की डांट खाने का बुखार, या फिर माँ-बाप की छत्र-छाया में पलनेवाले और उनके अभाव में पलनेवाले बच्चों के साथ होने वाले भेद-भाव का बुखार, जिसमें सुबह दातुन के बाद सब बच्चों को मिलने वाले पार्लेजी बिस्कुट से मुझे वंचित रखा जाना भी शामिल था...!
 पर उस बुखार की कोई दवा नहीं होती थी. पता नही, बिन दवा के कैसे ठीक हो जाता था.  सुबह चाय के साथ रात की बची रोटी खाने से, या तीसरे आँगन में घनघोर तुलसी मईया की महक से, या गिरे हुए तुलसी पत्रों को चबा जाने से  या पोई की लतर  से लिपट कर खेलने से, या मेहंदी अनार के उफनती  महक से या अरुई का पता तोड़, लाकर किसी  से उसका  साग बनवा कर खा लेने से या गौरैया को उनके बच्चों को भोजन खिलाते देख... वह बुखार उतर ही जाता. पर कैसे ?..ठीक ठीक याद नही..
पता नहीं, धुंधली सी ये सब यादें एक साथ क्यों चली आ रही हैं ?
---“स्मृतियाँ ऐसे ही खेल कूद किया करती हैं....विवरण ठीक से आ रहा है न ?”
---“उफ्फ्फ...बहुत सुन्दर...अद्भुत.. पर एक बात.. रुकिए...!”
---“बोलो”
---“और नौकरों के साथ, हम भाई-बहन भी नौकर..??”
---“क्यों ठीक नहीं है क्या?”
---“भाई नही... उसे ठीक से ही रखा जाता था... मेरे से ही उसका काम भी लिया जाता था..!--वह  बचपन से दादा-दादी के पास रहा ..पता नही क्या लगाव था उन लोगों को उससे...! कहीं भी जाते, एक साल का था, तबसे उसे लेकर जाते थे...! कुम्भ मेला में भी लेकर गये थे...सब कहते थे, जो देखता था, कि बूढ़े-बूढ़ी को लगता है बुढापा में बच्चा हुआ है...!”
---“तुम ...तस्वीर  की बात कर रही थी  जो,  मेले से खरीद लायी थी... क्या बना उसका ?”
---“बारिशों के मौसम में अक्सर खपरैल घर चूने  लगते हैं और हर साल खपडों की अदला-बदली में कई बार दीवारों से लग कर बहे हुए बारिश के पानी से पेंटिग धुंधला गयी थी. आज अब उस पेंटिग को सोचती हूँ तो सहज ही अनुमान लगता है, बनाने वाले या बनाने वाली के मन की बेदना का. ...मुझे याद नही की किसी पुरुष ने बनायी थी या औरत ने...
याद आ रहा है  जब तेरह साल में प्रवेश की थी और उस साल भी मेले से एक पेंटिंग लाई थी ...बेहद खूबसूरत और रंगीन, इतने सारे रंग थे ....सारे रंगों का समायोजन , अद्भुत बन पडा था, लगता था बनाने वाला, जीवन की रंगीनियों से खेलना चाहता हो जैसे...!”
सात और तेरह बरस, दोनों उम्र की पेंटिंग की खरीदारी का अर्थ भले ही अभी तक नहीं समझ पायी हूँ ...क्या और क्यूँ? ...लेकिन किशोरावस्था की वे बंदिशे, वह जकडन, वह भेद-भाव उन लम्हों की कसक,  आज भी बहुत कसमसाती, तडपाती है...आखिर, हम लडकियों को ही क्यों झेलना होता था यह सब ..क्यों नहीं उड़ने दिया जाता था... उन्मुक्त परिंदों की तरह ...???
बीते को लिखने लगूं तो  पता नहीं क्या-क्या रिसता चला आये !
अब, जब-तब, मन का बिक्षिप्त होना, इस लाईलाज बिमारी में जकड़े जाना, इस सबके बीज और जडें,  मुझे वहीं दिखाई देते हैं..!
इसके बाद भी हम लडकियों में कैसी जिजीविषा होती है...इस तकलीफ को भी अपने हौसले से आज तक मात देती आई हूँ...क्यूंकि, मुझे असहाय होकर, उड़ते परिंदों को देख रही, पेंटिंग वाली चिड़िया नही बनना था..जो कि मैं थी..

बहुत हो लिया जिम्मा-जिम्मेदारी. अब एक गुणात्मक जीवन जीना चाहती हूँ.. मात्रात्मक नही... बीते लम्हों जैसे लोगों की चुचुआहट,  मेरी जिन्दगी का एक-एक लम्हा कम कर देते हैं. अलग-अलग लोग..अलग-अलग इलाज..!  अब बचे-खुचे जीवन को बेहद सार्थक करना चाहती हूँ. जो भी दिन, साल, दशक, दो दशक जियूँ अपने हिसाब से जीना चाहती हूँ ....
हाँ..! मैं उड़ना चाहती हूँ  अछोर आसमान में, अपने समग्र अस्तित्व के साथ.. साथ दोगे न.. मितवा.. ..।

Thursday, June 4, 2015

इरादे क्या हैं तुम्हारे ?

पर्यावरण दिवस पर...



जहाँ देखो,
सूखी-प्यासी
हांफती सी
दरकने दरारें

सब कुछ
जैसे लुटा-पिटा
मिटा-मिटा सा
नदी, जंगल,
पहाड़ सब उदास...

देखो न ..
धूल-धूसरित
वसुधा की शान
सारा अभिमान...
आखिर
इरादे क्या हैं तुम्हारे ?

Friday, May 22, 2015

पेपर्स कटिंग

काव्य गोष्ठी विडिओ / उत्तर प्रदेश भाषा संस्थान लखनऊ और हेल्प यू ट्रस्ट के तत्वाधान में आयोजित व्याख्यान एवं काव्य-गोष्ठी में काव्यपाठ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ! कार्यक्रम में परम आदरणीय पद्मभूषण दादा गोपाल दास नीरज जी का सानिध्य मिला ! बॉलीवुड अभिनेता श्री ओमपुरी जी द्वारा शाल और मोमेंटो से सम्मानित होने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ ! मंच पर गोपाल दास नीरज जी / ओमपुरी जी सपत्नीक श्रीमती सीमा कपूर जी /मुख्य अतिथि श्रीमती अरुणा कुमारी कोरी जी मा. राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार )संस्कृति एवं महिला कल्याण विभाग ,उ,प्र. / श्रीमती सुतापा सन्याल ए.डी.जी./ श्रीमती जरीना उसमानी जी / डॉक्टर रूपल अग्रवाल जी / डॉक्टर रेनू चंद्रा जी / डॉक्टर प्रेम लता जी की भी गरिमामय उपस्थिति रही ! हॉल में उपस्थित सभी मित्रों का हार्दिक आभार जिनके होने से मुझे हौसला मिला

Saturday, May 9, 2015

माँ


***
माँ के भीतर तो खड़ा होकर हम
दुनिया को अंगूठा दिखाये थे
माँ की आँखों के ताल में
डुबकी लगाएं ,तैरना सीख जाये
घर ही नही ,माँ तो पूरा गाँव ठहरी
ढोलक की थाप थिरकेँ,मंगल गीत गायें
गाँव ही नही माँ तो पूरा देश ठहरी
इत-उत् जायें
गोद में लेट जायें ,रोधना पसारे
देश ही नही माँ ब्रम्हांड ठहरी... !

Monday, March 30, 2015

तिरते बादलों की

तुम आये..
तुम चले भी गए
सूखे पत्तों के ऊपर
अंजुली उड़ेलते हुये
भागे जा रहे .. ..
तिरते बादलों की
टप्-टप् टप्-टप्
बूंदियों की तरह ... !!

Sunday, March 22, 2015

ओ मेरे प्रेम ..

... हर रात कोई आता है मुझे सजाता है सुबह उठकर देखती हूँ आइना मन आत्म-मुग्ध हो जाता है कौन है ? मुझे सजाते चले जाने का उसे यह क्या शौक है ? वह भी बिना शोर... चुपचाप ! उसका मुझे सजाना मेरे ही भीतर बिना किसी आहट के उतर आना... कितनी नींद कितना आहार कितना सहेजना बदलना तराशना कितना व्यर्थ को हटाना (किसी और दृष्टि से उसे भी सार्थक करता हुआ) सारे हिसाब-किताब उसे मालूम हैं कैसा प्रेमी वह मेरा मैंने कभी उसकी कदर ही न जानी लादती रही उसके निर्माण पर परेशानी दर परेशानी .. फालतू के चिंतन यह नहीं और वो नहीं ! ओ मेरे प्रेम बड़ी देर में समझ पायी हूँ मैं तेरी कहानी

Saturday, March 14, 2015

कहाँ रे पिया ...

सारंगी सा बजता 
रात का यह चौथा प्रहर
रटता एक ही धुन कहाँ रे पिया निकालता रक्त पिंजरे की कैद से ले चलता घाटियों की अमरबेल कंदराओं में निर्झरों के पास पिलाता जीवन अमृत मैं और तुम से परे का इक स्वाद...!

Friday, March 13, 2015

मुझको भी अन्दर आने दो

ओ मेरे पोखर ,ओ मेरे पोखर
कांच सा सुन्दर क्यूँ दिखते हो ?
जी करता छपाक से कुदूं
और तेरी होकर रह जाऊं

मुझको भी अन्दर आने दो
कुमुदिनी सा खिल जाने दो

मछलियों सा उधम मचाऊं
इस कोने उस कोने जाऊं
डाले जब भी बंशी कोई
और कहाँ तुझमे छुप जाऊं

मैं तो रह गयी तेरी होकर
ओ मेरे पोखर ,ओ मेरे पोखर ...!