Sunday, March 22, 2015

ओ मेरे प्रेम ..

... हर रात कोई आता है मुझे सजाता है सुबह उठकर देखती हूँ आइना मन आत्म-मुग्ध हो जाता है कौन है ? मुझे सजाते चले जाने का उसे यह क्या शौक है ? वह भी बिना शोर... चुपचाप ! उसका मुझे सजाना मेरे ही भीतर बिना किसी आहट के उतर आना... कितनी नींद कितना आहार कितना सहेजना बदलना तराशना कितना व्यर्थ को हटाना (किसी और दृष्टि से उसे भी सार्थक करता हुआ) सारे हिसाब-किताब उसे मालूम हैं कैसा प्रेमी वह मेरा मैंने कभी उसकी कदर ही न जानी लादती रही उसके निर्माण पर परेशानी दर परेशानी .. फालतू के चिंतन यह नहीं और वो नहीं ! ओ मेरे प्रेम बड़ी देर में समझ पायी हूँ मैं तेरी कहानी

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