Monday, October 17, 2011

वो बच्ची हूँ मै....मै वसुंधरा

लगभग चार दशक होने को है ,कार्तिक माह के अक्षय नवमी के दिन एक स्त्री जो बुरी तरह जली हुयी देवरिया जिला के सदर अस्पताल के एक कमरे में बेड पर मरणासन्न अवस्था में लिटाई हुई ,सूती धोती के टुकड़े से शरीर ढंका हुआ जीवन और मृत्यु के बीच में झूलती हुयी उस स्त्री को सिर्फ ये चिंता सताए जा रही थी की उसके गर्भ में पल रहे शिशु तो ठीक है न ,उसे वो जन्म तो दे सकती है न ,होश आने पर उन्हें बस यही ख्याल होता था !
घर के सदस्य उनके सास ससुर,तमाम लोग उनकी नित्य क्रिया कराते थे पर उन्हें बस उसकी चिंता थी जो इस दुनिया में आया नहीं था !
शरीर इतना बीभत्स जला हुआ था कि डाक्टर गर्भ में ठहरे उस चार महीने के शिशु को ना तो आपरेसन द्वारा निकल सकते थे और ना ही किसी दवा का प्रयोग कर बाहर ला सकते थे क्यूंकि शिशु गर्भ में बड़ा हो चूका था ,ये बात जानकार उस स्त्री को बहुत ख़ुशी हुयी कि चाह कर भी मेरे बच्चे को मुझसे कोई अलग नहीं कर सकता ,इसलिए वो सुकून भरी नींद के आगोश में भी चली जाती थी !
महीनो लगे उनको ठीक होने में ,सासु माँ घर से मालपुए बनाकर अचार के साथ लाती थीं और अस्पताल के सारे स्टाफ को बाँटती थीं ,उनको खुश करने का एक ये भी तरीका था ,वो लोग खुश होकर स्टोर से अच्छी-अच्छी दवाएं ,इंजेक्सन ले आकर उस स्त्री के लिए इस्तेमाल करते थे !
चार महीने के भागम-भाग में जाकर जले हुए घाव से निजात मिली फिर भी दवा चल रही थी और डाक्टरों का कहना था कि जब बच्चा हो जाये तब आप को घर जाने कि अनुमति मिलेगी ,हलाकि उस स्त्री का घर सदर अस्पताल से तीन किलोमीटर कि दुरी पर था और अभी भी है !
अस्पताल से उकताई एक शाम वो स्त्री अपनी सासू माँ से बोली -माँ कल चैत मास की रामनवमी है और रात में अपने घर पूजा होती है ,हम दोनों यहीं रहेंगे तो पूजा कैसे होगी ? डाक्टर से बात कीजिये और कल सुबह हम लोग घर चलते हैं रात को पूजा करके फिर वापस आ जायेंगे ...बात जमी और डाक्टर ने भी हामी भर दी, पाँच महीने से घर के सदस्य जैसे तो हो गए थे डाक्टर और सारे कर्मचारी !
दुसरे दिन सुबह छः बजे सासु वहू घर पहुँची ,पूजा की तैयारी शुरु हो गयी ,सासू माँ चाय वगैरह के बाद महरी के साथ लग गयीं क्यूंकि शाम की पूजा में जो पूड़ियाँ बननी थी उस समय खुद घर पर पीसे जाते थे गेंहू तब पूजा होती थी !
इधर बहुरानी को अनजानी सी दर्द हो रही थी जिसका अंदाजा उनको नहीं समझ में आ रहा था और बड़ी तपस्या पर पहली संतान गर्भ में थी तो संतान के उत्त्पन्न होने का दर्द कैसा होता है समझ नहीं पा रही थीं ,और दर्द से पाँच महीने का नाता हो चला था ...अचानक असहाय दर्द से घर के सभी लोग दौड़े...सासु माँ दौड़ी ,महरी दौड़ी ,अस्पताल और घर के दो घंटा छब्बीस मिनट का सफ़र रहा होगा , यानि की आठ बजकर छब्बीस मिनट पर उस स्त्री ने घर पर ही एक बच्ची को जन्म दिया ........वो बच्ची हूँ मै....मै वसुंधरा


माँ के मामले में कितनी नसीब वाली हूँ मै ,पर उस माँ को क्या दिया मैंने -गर्भ में आई तब से आजीवन एक जलन एक तड़प इनका शरीर कृशकाय हो गया जला हुआ शरीर...जले की एक अति दिखाई देता है उनका उदर !
माँ -- आज अनायास आंसुओं की पोटली खुल गयी है और अविरल नदी सी हर बाँध को तोड़कर मेरे पुरे अस्तित्व को छिन्न-भिन्न कर बह रही है ....जब भी मैंने खुद को अकेले पाया....इस अरबो की संख्या के बीच तब-तब आपका आँचल आपके रोम-रोम मुझे छाँव देने लपकती..आतुर सी ...मेरे सर से पाँव तक को ढांप दिया है आपने , मै जल ना सकूँ ...बिखर ना सकूँ ,टूट ना सकूँ..कितना ख्याल रखती हैं आप मेरा ....
पर मैंने आपको क्या दिया माँ ...कोंख में आते हीं आपसे आपका सुन्दर तन छीन लिया ..पांच महीना अस्पताल का बेड दिया ...दादी की जुबानी और रिश्तेदारों की जुबानी सारी बातें जान गयी पर आप अपने मुंह से कभी नहीं कहीं मेरे कान तरसते हैं माँ की आप अपनी जुबानी वो कहानी बतावो जब भी मै बात छेड़ती हूँ आप सिर्फ यही कहती हैं की वर्षों के इंतज़ार बाद तुझे गर्भ में पाया तो तुझे कैसे खो देती .............
माँ आज पन्द्रह दिनों से फिर आपके आंचल तले गुजारा है मैंने....आज आप जा रहीं है तो रात से हीं मुझे नींद नहीं आई पर आपसे कह ना सकी और सारी बातें एक -एक करके मेरे आँखों से गुजरती रही पूरी रात ...मै कहना चाहती हूँ माँ की मत जावो पर कैसे रोकूँ ...बेटी के घर रहने का रीत आप का नहीं है...बस बेटी अस्वस्थ हो तो आप महीनो सालों रह सकती हो.... ऐसा क्यूँ माँ...ऐसा क्यूँ...

Saturday, October 15, 2011

मौसम...चार

बदलते पाया है तुम्हे
मौसम की तरह...
कभी उफनती
गरम थपेड़ों की तरह ...
प्यार करते हुए ...
बस तेरे आगोश में...
पिघल सी गयी हूँ 'मै',
जैसे..........
लौह,पिघलता हो
गर्म आँच पाकर...
कभी बरसात की
घटाओ की तरह....
जो उमड़ कर अपना
सारा प्यार...
धरती पर...
लुटा देना चाहता हो...
कभी....
ठंड की थपेड़ों की तरह
जैसे....
नर्म ,मुलायम रुई के फाहे में ...
किसी...नवजात को
बचाने की कोशिस में...
खुद का ख्याल ना होना
कभी पतझड़ की तरह ....
जब हर आहट
सांय-सांय करती हो...
और....एक अनजानी सी
डर के कारण
मै दरवाज़े के पल्ले को
पीठ के सहारे
दबा के खड़ी हूँ ...
की कोई एक झोका
पल्ले को हिला ना जाये
इन चार मौसम का
प्यार तुम्हारा अद्भुत है
जिसे सिर्फ मै समझ पाती हूँ
सिर्फ मै...Vasu