Saturday, December 1, 2012

छोटे -छोटे कण

तेरे रंगों में से बस कोई इक भी रंग हो ऐसा...
सूरज भी लाली ले उसमे अपनी कलम डुबोकर...!!



 जिस्म से भी परे है अद् भुत अहसास तेरा
रूह में उतार तुझे, मैं खुद को खुदा पाती हूँ...!!



 जिंदगी मेरी...मेरे पास 'ठहर' के रहना,
तुझ संग जीने की ललक है 'ताउम्र '...!!




 दिल जैसे 'लहरों' पर
'लहर' बन लहराता
निःशब्दता गुनगुनाने लगती है... !!






मैं सीमित हूं ...
असीमित अकांक्षाओं के साथ... !!






 मेरा मन
मेरे सपने तो
तुम्हारे ही संसार रचते हैं...!!






अतीत
बहुत सुन्दर लगता है
वर्तमान में
रहता कौन है...???
भविष्य के विषय में
सोचते हुए
वर्तमान बीतकर
अतीत हो जाता है..
यही सत्य है... ... !!






जीवन एक
अबूझ पहेली
और ये ...
सपने न जाने
क्या- क्या
रंग-रूप
धारण कर लें
कभी पूनम
तो कभी
स्याह रात
छिन्न भिन्न सब... ... !!




दबे पाँव आते हो 'तुम' हौले -हौले...
हरसिंगार झरता है उसी पहर ... !!



 तुम मेरी 'हद'..
मेरी 'अनहद्द'...
तुममे रंगते रंगते
मनभावन हो गयी
ये 'प्रेम' है जोगी....
ये भक्ति है...
मै 'अडोल' हूँ जोगी ..
चाहे 'जब' आजमा लेना ...!!

सरहद तेरे मेरे बीच की

 'काश' कि ...
खुब बारिश हो
इतनी कि...
उतर आये
नदी आकाश से
बहा ले जाये
सरहद तेरे मेरे बीच की
शेष रह जाये
खिली-खिली सी सुबह
गुनगुनी दोपहरी
सुरमई शाम
और हमारा प्यार ... !!

Sunday, November 25, 2012

मिल नहीं पाऊँगी

बिना शोर के
धीरे-धीरे,
हर पल
कुछ घुट रहा है
कुछ टूट रहा है
सुबह
जब जागता है सूरज
टटोलती हूँ खुद को
कहीं कुछ कम
हो चुका होता है..
पता नहीं क्या ?
ऐसे ही घिसती रही
तो एक दिन
साबुत दिखने पर भी
मिल नहीं पाऊँगी
खुद से
तुमसे
या किसी से भी ...!!

Friday, November 23, 2012

बावरा आवारा दिल

सन्नाटे तोड़ती
पटरियाँ चीरती
धरड़-धरड़ रेल
पा लेती है मंजिलें

पर यह दिल
दिनरात धडकता
बावरा आवारा दिल

कितना ही चाहे
तुम तक पहुंच पाना
वहीं का वहीं रहता है
जहाँ से चलता है

क्या तुलना ले बैठे हो ?

कहाँ
लोहे और तेल और
समाज की धरड़-धरड़
कहाँ
दिल की छुई-मुई
हारमोनियम धडकनें

फिर भी दिल, दिल है
अपना मालिक खुद है

आज नहीं तो कल
इस जन्म नहीं, तो अगले में
पा ही लेगा मंजिलें ... !!©

Tuesday, October 30, 2012

'इक गंध घुलती है'

'इक गंध घुलती है'

'तेज धूप वाली
दुपहरी में' जब
कोई पगला बादल
बरस जाता है...

उसके ठीक बाद
जैसी गंध आती है ना?

ठीक वैसी ही...
गंध घुलती है जब
तुम चुपके से
मुझे 'नीहार' जाते हो... !!

Sunday, October 14, 2012

अंतर्द्वंद

 अंतर्द्वंद
बिवश कर देता
हाथ चल पड़ते
रच जाती है
शब्दोंको मिलाकर
मन की पीड़ा से
मिश्रित
एक कविता

भाग नहीं पाती
इन शब्दों को बेवश छोड़

कई बार सोचती
कि अब नहीं....
अब नहीं !

अब सब छोड़
शांति की सांसे लूँगी
पर ऐसा होता नहीं
तन- मन कि पीडायें
झुण्ड बना ...
शब्दों को धकेल
दिमाग पर हाबी होते
और हाथ
चल पडतें है...शब्दों के सफ़र में ... ... !!

एक अफ़सोस

कभी सोचा ही नहीं
एक दीवार ...
जिसकी सीमायें अनंत थी

उसके भीतर मैं
पतंग की भांति
स्वतंत्र थी...

अपनी उड़ान
भरने के लिए
अपनी शरीर की
सीमाओं को तोड़कर...

जहाँ एक पुरुष
मेरे लिए
कभी मर्द नहीं रहा...

लेकिन आज मैं
स्त्री क्यूँ बन गयी ?
किसके लिए ...

ये जानकर कि
वो पन्ने....
कभी पलटेंगे नहीं

वो दिन कभी
लौटेगे नहीं
लेकिन
एक अफ़सोस
उस अहसास को
आज भी
जिंदा किये हुए हैं
जिसे मैंने
समझने में मैंने
एक दुनिया
बदल डाली ...

उस दुनिया का
हिस्सा न होकर भी होकर ......
आज क्या उसे अर्पण करू...
"वो" तो 'शरीर'
और 'तमाम' सीमाओ से... ऊपर हैं... .... !

Thursday, October 11, 2012

ओह !
किस कालीदास ने
अचानक से
मेघ भेज दिए ...

तीन रातेँ ,
तीन दिन से
लगातार बरसते रहे मेघ
अब थोड़ा
थके से हैँ...पर

कोई भरोशा नही
कब टपक पड़ेँगे

गाँव होता तो
पोखर भर आया होता
कुईँया उफना आयी होती
खेतोँ की पगडडी दिखती नही
और मै
हिरनी सी, लहराती
बलखाती इठलाती
कभी पोखर से
कमल तोड़ लाती
कभी मेढकोँ संग
टरटराती ...
कीचड़ से सने
घर आती
बाबा की डाँट खाती
माँ मुझको समझाती
अपनी जिद मनवाने खातिर
बिन बात के रोये जाती
बिन बात के रोये जाती... ... !!
भीतरी उठा-पटक,
कशमकश तथा बाहरी
खीँचतान से उबकर, आखिर
फट ही पड़ा आसमान...
और घनघोर बारिश
पहरोँ हुई...
पुरवईया का थपेड़ा
कब तक सहे... ... ... !!
साँझ का बजरा
रात का किनारा छुने लगा,
जैसे कोई मुर्दा क्षण..
अन्धेरे होते पल का..
एक सिरा सूरज और
दुसरा सिरा चाँद के हाथ,
और उसे चुपचाप दोनो
रात के सन्नाटे मेँ
कहीँ दफनाने जा रहे होँ... ... !

Friday, August 10, 2012

ये जीना है या जीने का बहाना...

झुकती हुई मेरी पलकें
गिरती सी सांसे
उखड़ते कदम
ये जीना है या जीने का बहाना...

खुबसूरत मंजर
नदियों का अल्हड़पन
सितारों का यौवन
कभी सुनी इनकी कहानी...???

तुम्हारे मेरे बीच
एक अंगारा
हजारो सपने
फिर भी दुरी का एहसास ...


एक दर्पण
सच का पदार्पण
एक आस
नए दिन का इंतज़ार ...

कई बातें
रूठ कर ठुमकना
जिद्द और जिद्द
अंगारों में आंसू ...

पर मैंने भी
जिद्द ठानी है
आज दिल को नहीं समझाउंगी
उसको थिरकने की तमन्ना है
क्यूँकर उसकी डोर खीचुंगी ??


ये नदी का बहना बेबाक
शबनम की बूंदों का सा एहसास
बादलों से आलिंगन की ख्वाइश
चलो यही सही , शरारत का सा माहौल ...


बस मैंने भी छोड़ दिया सब अंकुश
और चल दी आकाश से मिलने
बस आज यही जिद्द है
उन्मुक्त,बेबाक,ठुमकने की तैयारी ...!!

Thursday, August 2, 2012

हर उम्र का एक अलग आसमां है

 वक़्त
अपनी हथेली में
कई तजुर्बे लेकर आता है...
आपको उनसे
जिंदगी की
तस्वीर बनानी होती है......
कुछ तस्वीरे
मुकम्मल बनती है ....
कुछ अधूरी...............
कुछ अधूरी तस्वीरे
खूबसूरत अहसास बनकर
ताउम्र जिंदा रहती है...
कुछ मुकम्मल होकर भी अधूरी....
जिंदगी कभी फ्रीज नहीं होती....
हर रिश्ते का एक दायरा है.....
हर दायरे की एक उम्र ....
जिसे घटना बढ़ाना वक़्त के हाथ में है.
१५ की उम्र में जो आप होते है
....२५ में नहीं होते ........
३५ में कुछ और  हो जाते है....
हर उम्र का एक अलग आसमां है
हर ऊम्र का अपना सच होता है पर,
पर ...प्यार की अनुभूति
सबसे अलग विश्व रचती है... ... ... !! 

Monday, July 16, 2012

सुन...,
मन ले चल ,
उस ओर जहाँ
पीपल के पत्ते
आपस में बात करते हैं ...
जहाँ...
टेबल की जरुरत नहीं होती ...
शब्द ....
मन की कागज़ पर
टंकित होते जाते हैं धडाधड...
जहाँ तुमसे कहने को
कुछ... लिखना ना पड़े ...
और तुम बिन कहे
सब समझ जाओ
हाँ एक जगह है....
मेरे दिल का सुनसान कोना...
जहाँ तुम अमृतत्व की
बरसात किये थे उस दिन...
वो गर्माहट नहीं आती तुममे अब ...
पर ...
वो बाज़ारवाद की
चपेट में कभी नहीं आयेगा ...
चल मन वहीँ चल...!!

Wednesday, March 14, 2012

बसंत

बीत गया बसंत
तेरे आगमन की यादे
शेष है
पतझर के मौसम में
ये कैसा श्रृंगार हुआ था
बसंत का आगमन तो दूर
मेरे मन में
तेरा आगमन
बार - बार हुआ था
नैस्त्रशियम और पैंजी के
फूलों से ज्यादे
सुन्दर, खुबसूरत
आम के बौरों से भी
ज्यादा महकदार -
ऐ मेरे यार,
हवा जैसे...
दोशीजा की कलियों के आंचल
और लहरों के मिजाज से
छेड़खानी करती ,
मेरे मन में तेरी आहट
एक नयी अनुभूति..
तुम सुबह से भी ज्यादा मासूम
प्रभाती गाकर..
फूलों को जगा देने वाले
देवदूत मेरे
सूर्योदय के गुलाबी पंखुडियां
बिखेरने वाले,
सुनहरे पराग की एक बौछार
सुबह के ताजे फूलों सी बिछ रही
मेरे तन-मन में
अब भी शेष ... !!

Saturday, March 10, 2012

Holi

रंग-बिरंगा शहर
गाड़ियों के हार्न
बहावदार आवाजें
साफ़ -सुथरे हँसते आदमी
खूशबू फैलाती औरतें
... लाल-पीला,हरा-नीला रंग
साथ में भंग
और हुडदंग...

होरी के गीत
गीत के हर कड़ी के बाद
ढोलकों की ठनक थम सी जाती !

कभी-कभी सितार की आवाज
ख़ामोशी के झटके के बाद
मध्य लय में निकलते हुये
सितार की गत उचे स्वर से उभरती

और....
निश्शब्द्ता की घाटी में
स्पष्ट अनुगूँज छोडती ,खो जाती !

बस एक 'मै'
किसी बरसाती नाले की
झुर्रीदार सतह पर
एक तिनके की
तरह, उठती गिरती बहे जा रही....

अचानक से तेज रौशनी का सैलाब
छोडती हुई ढोलकें,
मेरा पूरा अस्तित्व 'तुम'पर टिक गया ... !!

Tuesday, February 28, 2012

''पूर्ण नहीं होती''

दिनचर्या की
हाड-तोड़ मेहनत के बाद
जब भी खाली सपहे पर
उकेरना चाहा तुम्हे..
तुम 'पूर्ण 'नहीं होते...

हार के आती...
सपहे को झाड़ती,
रंगों को निहारती
देखती.....
पलट,पलट,पलट
कमी क्या है मुझमे ..?

शंका रूपी नागिन की
हिलती पूंछ की तरह
मन शंकित होता...!

मन खुद से कहता ...
ऐसे शंका का क्या...?
शंका कर.....
नचिकेता की तरह
श्वेतकेतु की तरह शंका कर
भातखंडे के संगीत वाले
शिष्य की तरह शंका कर
जो,कुरेद-कुरेद कर
रागों का तत्व निकालता
और उसे आत्मसात करता ..!

फिर मै अपने से कहती....
मेरी शंकाएं तो 'फटीचर' की तरह है
जिसे रंगों का ज्ञान नहीं...वो
बनाने चली 'तेरी' 'सम्पूर्ण आकृति' ...???

Saturday, February 18, 2012

सुन रहे हो न ....???

आधी-अधूरी 'भूख',
आधी-अधूरी 'नींद'....
पर.....
'तुम' तुम्हारी 'यादें' ...
पूरी रहती हर पल'...
रोज सोचती हूँ कह दूँ
तुमसे...
जो कहना चाहती हूँ
पर कह नहीं पाती...

बस..
आँखे गीली हो जाती है...
और .....
दुपट्टे के कोरे
को घुसा देती
कि.. सोख ले मेरे
सारे जज्बातों को
और कोशिस करती हँस दूँ....


क्या करूँ हंसने का दिखावा
हमसे नहीं होता...
पर अन्दर ही अन्दर
जज्ब कर ऊपर से
हँस लेते हैं हम

सुनो...देव...!

एक दर्द होता है....
'मीठा' है या 'तीखा'
समझ नहीं आता...
पर होता है बाएं तरफ ,
जहाँ दिल होता है
जैसे कुछ टूटता हुआ
किर्ची जैसे चुभता हुआ..
साँसों के 'आवाजाही' में भी
तकलीफ होती है ...

सुन रहे हो न ....???
बहुत कुछ कहना है...
बहुत कुछ बाकि है....
बाद में कहूँगी...

अनवरत प्रवाह...समय का !!

क्या हो गया है
क्यूँ सो नहीं पा रही
बादलों से ढकी ...
जाड़े की रात
ठिठुरे हुए खामोश पेड़,
अत्यंत अरुचिकर स्थान पर
नीलिमा में डूबे हुए
परम क्षणों की
एक अजस्र धारा,
अन्दर कहीं प्रवाहित हो रही

पलकें छलछला आतीं
बार -बार
चांदनी में टहलने का मन ..
पर ठण्ड के कारण ...
निकलना मुमकिन नहीं

लाइट बुझा ...
खिडकियों के परदे हटा
बहुत देर तक खड़ी रही,
सामने खिड़की के
एक पेड़ और उस पर
हलकी चांदनी के
विशाल धब्बे दिख रहे थे

कभी -कभी मोर की
आवाज आती हुई...
एक कोई और पंक्षी
अनवरत रट से बोलता रहा
क्या चक्रवाक था ???

चांदनी भी कांप रही थी
जैसे कोई शांत जल में
कंकड़ डाल उसे कँपा दे...
सब के बीच
इतनी अकेली क्यूँ ?

अचानक मोबाईल के...
अलार्म ने बताया कि मै भी
जाग रहा तुम्हारे संग ...

उठी ,सोच रही थी की
ये...समय का
अनवरत प्रवाह है
इसे मै 'किसी प्रकार'
अंजलि में लेकर पी जाती...!!

Monday, January 9, 2012

सिंदूर


बचपन में
माँ को सिंदूर लगाते देख
जिद की थी मैंने भी
माँ
मुझे भी लगाना है सिंदूर
मुझे भी लगा दो न
तब माँ ने समझाया था-
ऐसे नहीं लगाते
बहुत कीमती होता है यह
घोड़ी पे चढ़के एक राजा आएगा
ढेरों गहने लाएगा
तुमको पहनाएगा
फिर सिंदूर तुम्हे ‘वही’ लगाएगा
रानी बनाके तुम्हे डोली में
ले जाएगा
तब उन बातों को, पलकों ने
सपने बना के अपने कोरों पे सजाया
बड़ी हुई
देखा…बाबा को भटकते दर-बदर
बिटिया की माँग सजानी है
मिले जो कोई राजकुमार
सौंप दूँ उसके हाथों में इसका हाथ
राजकुमार मिला भी पर
शर्त-दर-शर्त
‘आह’
किस लिए
चिटुकी भर सिंदूर के लिए
‘उफ्फ’…..माँ
क्या इसे ही राजकुमार कहते हैं ?
काश! बचपन में यह बात भी बताई होती
राजकुमार तुम्हारी राजकुमारी को
ले जाने लिए इतनी शर्तें मनवाएगा
तुम्हारी मेहनत की गाढ़ी कमाई
ले जाएगा
तुम्हारी राजकुमारी पर आजीवन
राजा होने का हुक्म चलाएगा
तो सिंदूर लगाने का सपना
कभी नहीं सजाती.
कभी नहीं माँ .. .. .. !!

(किसी व्यक्ति विशेष से न जोड़ा जाये...इसे,
सिर्फ दहेज़ विरोधी कविता है ये...न मेरी कहानी ना आप की)