Tuesday, July 16, 2013

सोच २ रचनाएँ



(एक)

सोच....बिल्ली है
मन के अँधेरे गलियारों में
अनजान रास्तों के काटे फेरे

पता नहीं
कहाँ से क्या सूंघ ली है
भटक रही है ...!!
***

(दो)

सोच... पतंग है

सोचती है, स्वतंत्र हूँ
उड़ने को अम्बर में कहीं भी

पर उतना ही उड़े
जितनी पीछे डोर,
तुनका और ढील...

और डोर,
तुनका और ढील

यह सब तो
कहीं और
किसी और हाथ में...!!
***

8 comments:

  1. सोच की भटकन या उसका सिमित विस्तार ... दोनों ही भावपूर्ण बिन्दु हैं ... जबकि सोच की गहराई को पार पाना अपने ही बस में है ...

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  2. प्रभावशाली है ..
    शुभकामनायें !

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  3. कुछ सिखाती समझाती कविता...... बहुत सुंदर भाव

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  4. बहुत सुंदर भाव

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  5. बहुत सुंदर भाव

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  6. बहुत उम्दा,सुंदर रचना ,,

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