(एक)
सोच....बिल्ली है
मन के अँधेरे गलियारों में
अनजान रास्तों के काटे फेरे
पता नहीं
कहाँ से क्या सूंघ ली है
भटक रही है ...!!
***
(दो)
सोच... पतंग है
सोचती है, स्वतंत्र हूँ
उड़ने को अम्बर में कहीं भी
पर उतना ही उड़े
जितनी पीछे डोर,
तुनका और ढील...
और डोर,
तुनका और ढील
यह सब तो
कहीं और
किसी और हाथ में...!!
***
बहुत उम्दा,सुंदर रचना ,,
ReplyDeleteRECENT POST : अभी भी आशा है,
सोच की भटकन या उसका सिमित विस्तार ... दोनों ही भावपूर्ण बिन्दु हैं ... जबकि सोच की गहराई को पार पाना अपने ही बस में है ...
ReplyDeleteप्रभावशाली है ..
ReplyDeleteशुभकामनायें !
कुछ सिखाती समझाती कविता...... बहुत सुंदर भाव
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव
ReplyDeleteबहुत उम्दा,सुंदर रचना ,,
ReplyDelete