Tuesday, April 1, 2014

माँ का मन



कभी-कभी

एकाएक
न जाने कितनी स्मृतियाँ
मन-दर्पण में प्रतिबिम्बित
हो जाती हैं एक साथ मुखर

उतर आता हैं
आँखों में
वह रूप, वह छवि
जिसका आदि, ना अंत
इतना अपना... इतना कि
तर्क की डोर खुलबिखर जाती है

कभी
कुछ होता है ऐसा भी
धूल अटी, मैली हवा
अधबनी-अधूरी बातें
घांव-घांव करता अंतर्मन
समझ से परे
घुंघुआता घुमड़ता..हु-हकार

पता नहीं
कहाँ चली जाती हैं
वे उमंगें?
वह स्वास्थ्य कामना
देंह झुलसती
जैसे किसी भाड़ में

और फिर...
कभी जब
इस अलक-सलोरे के
सुख शीतल गोरबदन पर
हाथ फेरते...
बिसरने लगता है सब
अंग-अंग गुदगुदाता ...

दुलारती वह,
लाड़ लगाती
हँसता बच्चा
हँसती वह
माँ का मन
फिर से जुड़ जाता है ...!!

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