दिनचर्या की
हाड-तोड़ मेहनत के बाद
जब भी खाली सपहे पर
उकेरना चाहा तुम्हे..
तुम 'पूर्ण 'नहीं होते...
हार के आती...
सपहे को झाड़ती,
रंगों को निहारती
देखती.....
पलट,पलट,पलट
कमी क्या है मुझमे ..?
शंका रूपी नागिन की
हिलती पूंछ की तरह
मन शंकित होता...!
मन खुद से कहता ...
ऐसे शंका का क्या...?
शंका कर.....
नचिकेता की तरह
श्वेतकेतु की तरह शंका कर
भातखंडे के संगीत वाले
शिष्य की तरह शंका कर
जो,कुरेद-कुरेद कर
रागों का तत्व निकालता
और उसे आत्मसात करता ..!
फिर मै अपने से कहती....
मेरी शंकाएं तो 'फटीचर' की तरह है
जिसे रंगों का ज्ञान नहीं...वो
बनाने चली 'तेरी' 'सम्पूर्ण आकृति' ...???
जिसे रंगों का ज्ञान नही हो वो बनाने चली तेरी सम्पूर्ण आकृति!
ReplyDeleteबहुत हि सुन्दर रचना!
वास्तव में हम अपने अत्यन्त प्रिय व्यक्ति को भगवान कि तरह मानने लगते हैं|
क्या बात है भारत जी....आपने तो मन की बात कह दी....धन्यवाद बहुत बहुत !
ReplyDeleteबहुत खूब ..
ReplyDeleteवाह.....बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबहुत अच्छी और सच्ची सच्ची लगी आपकी प्रस्तुति.
ReplyDeleteपहली दफा आपके ब्लॉग पर आया हूँ.
आपको पढकर अच्छा लगा.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
बहुत अच्छी प्रस्तुति,इस सुंदर रचना के लिए बधाई,...
ReplyDeleteNEW POST ...काव्यान्जलि ...होली में...
NEW POST ...फुहार....: फागुन लहराया...
kya baat hai bahut hi sundar ..!!!
ReplyDeletehttp://aikash.blogspot.com/2012/03/blog-post.html
kya baat hai bahut hi sundar ..!!!
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ReplyDeleteसंगीता जी / राकेश जी / धीरेन्द्र जी / इमरान जी /साधना भाभी ... आप सबका आगमन एक सुख देता है जो शब्दों में बयान नहीं कर सकती , बस स्नेह बनाये रखे आप सब....
ReplyDeleteमुझे पता है की मै नौसिखिया हूँ...सच कहूँ तो बिना सवारे सजाये लिखती हूँ..आप सबका स्नेह उत्साह बढ़ा देता है मेरा ...
दिल से आभार , मेरी गलतियों को भी मुझसे अवगत कराएँ...आभारी रहूंगी .. .. ..