अंकुरते, उगते,
सूखते, झडते
दो दिनों का खेल...
फिर भी यह धरती
ये मेरा, ये तेरा
ढोए चली जाती है
लगातार लगातार
यह घर-गृहस्थी गोरखधंधे
जाने कब से ज्यों के त्यों
नदिया में जल
इधर से उधर
जाने कहाँ से आता है
किधर को निकल जाता है
भविष्य खोजते हम
भूत हुए जाते हैं...!!
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