Friday, July 19, 2013

अखियाँ तरसें

कितने दिन यूँ ही उड़े
पँख बिन... धुआं हुए..

प्रतीक्षा
आखिर कितनी

मौसम बदले,
सावन बरसे
रिमझिम...अखियाँ तरसें

क्यों...

काहे न मन
गुनगुनाए
गीत-गुंजन खुशियों के

दिल की बातें
लिख-सुन फिर
हँस ले कुछ पल यूँ ही...

कितने दिन यूँ ही उड़े
पँख बिन... धुआं हुए...!

11 comments:

  1. मौसम बदले,
    सावन बरसे
    रिमझिम...अखियाँ तरसें

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  2. वाह !!!बहुत उम्दा,सुंदर सृजन,,, क्या बात है,,

    RECENT POST : अभी भी आशा है,

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  3. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती ,आभार।

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  4. जीवन की अनकही मनोदशा को व्यक्त करती
    बहुत सुंदर अनुभूति
    बधाई

    आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
    केक्ट्स में तभी तो खिलेंगे--------

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    साझा करने के लिए शुक्रिया!

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  6. एक दम दिल से निकली बेहतरीन

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  7. ये तो एक स्थिति है मन की ... कुछ ही बदलनी होती है ... बदल दो झट में और गुनगुनाओ ... भावमय ...

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  8. This comment has been removed by a blog administrator.

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  9. कितने दिन यूँ ही उड़े
    पँख बिन... धुआं हुए.
    क्या बात है जी... अद्भुत पंक्तियाँ ...पंख बिन तो जीवन ही धुआं है ...प्यार और कविता, दो ही तो पंख हैं आदमी के पास उड़ने के लिए.. और है क्या ..पंख हों तो SKY IS THE LIMIT ...अजीब बात यह है कि दुनिया सबसे पहले आपके पंख ही कतरती है ...हम अपने बच्चों से प्यार करते हैं उनके पंख कतरते हुआ... नेता अपने लोगों से प्यार करते हैं उनके पंख कतरते हुए... मिसालें देने लगूं तो एक ग्रन्थ ही निकल आये ...अति उत्तम और पूर्ण रचना.

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