Sunday, August 4, 2013

मैं रेत हूँ

अभी तो मेरी
रात भी नहीं टूटी
अभी तो
'लो' भी नहीं फूटी...

छटपटाने लगे हैं ..?
पालने के
झुनझुने से तुम
जिन्दगी में अभी देखा ही क्या है.. ?

हवा,
मुझे भी सहलाती है
लहरें,
मुझमें भी उठती,
बनती...बिगडती,
सफर करती हैं...

तेरे जैसे
कितने ही ऊंट-गर्दभ
दबे हैं
मेरे ढूहों में रेत हुए...

अरुणोदय के मेरे रंग
अस्ताचल की मेरी छटा

चलोगे क्या .. मेरी कविता की धूप में...?

मैं रेत हूँ
तो क्या मतलब...!
मेरा कोई वजूद नहीं...?

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