बीत गया बसंत तेरे आगमन की ... यादे शेष है पतझर के मौसम में ये कैसा श्रृंगार हुआ था ? बसंत का आगमन तो दूर मेरे मन में तेरा आगमन बार -बार हुआ था नैस्त्रशियम और पैंजी के फूलों से ज्यादे सुन्दर, खुबसूरत आम के बौरों से भी ज्यादा महकदार - ऐ मेरे यार,हवा जैसे दोशीजा की ... कलियों के आंचल और लहरों के मिजाज से छेड़खानी करती , मेरे मन में तेरी आहट एक नयी अनुभूति- देती हुयी... तुम सुबह से भी ज्यादा ..मासूम प्रभाती गाकर, फूलों को जगा देने वाले देवदूत मेरे सूर्योदय के गुलाबी पंखुडियां बिखेरने वाले.... सुनहरे पराग की एक बौछार सुबह के ताजे फूलों सी बिछ रही मेरे तन ,मन में - अब भी शेष ...Vasu
बोनसाई पौधे को अदबदा कर छोटा बनाने की अस्वाभाविक प्रक्रिया का उत्पाद है .पौधे के कुदरती विकास के साथ खिलवाड़ है .हमारे बनाए समाज में लडकियां औरतें भी बोनसाई बना रखी जातीं हैं ...!!
कितनी जहरीली कितनी तड़प , कितनी पीड़ा सांसो की अकुलाहट .. बढती जाती है उसमें फँसी इस 'मै' का क्या करूँ ? शरीर आत्मा को .. छोड़ती तो शव बन जाती , उसकी तो ' गती ' है कुछ लकड़ियाँ ... उस पर शव बना शरीर अग्नि को अर्पण करते लोग यादों को कहाँ अर्पण करूँ... तर्पण करूँ ? कैसे इसका श्राद्ध करूँ ... कैसे इसका श्राद्ध करूँ कैसे इसका श्राद्ध करूँ ... Vasu
मेरी चांदनी ... तुम..हो ही ऐसी .. तुझे याद क्यूँ न करूँ... मेरी गुलाब तो तुम ही हो बागों का गुलाब क्यूँ याद रखूं, वो सावन की पहली बारिश .. जब हम साथ थे... भींगे.. वो लम्हा भूलता ही नहीं फिर याद क्या रखूं, वो भींगे हुए गेसुओं को देख जब मै भ्रम में था कि घटा है या गेसू..... और लिपट गया था तुझमे.. वो भुला कब कि... कुछ याद करूँ, हर पल नुरानी बन समायी हो... मेरे जेहनो जद्द में सुबह कि रंगत को याद क्यूँ करूँ... सच तो ये है प्रिये... तुझे भूल पाता नहीं... फिर क्या याद करूँ ... क्या याद करू......Vasu
पर है 'सच यही की'
हर पल 'हम' छले जाते हैं केवल अपनों के हाथों 'गैरो के' नहीं बनना होगा हमें 'अचल' ,'अजर' धरा , अविरल 'बहने' वाली 'दरिया' मै..' नहीं बन सकती अब भावुक... क्यूंकि छली गयी बार बार .. अपनों से...!!